________________ अपर्याप्त और उसके बाद पर्याप्त की प्राय का वर्णन है। इसी क्रम से प्रत्येक नारक आदि को लेकर सर्व प्रकार के आयुष्य का विचार किया गया है। __स्थिति की जो सूची है, उसके अवलोकन से ज्ञात होता है कि पुरुष से स्त्री की आयु कम है / नारकों और देवों का प्रायुष्य मनुष्यों और तिर्यंचों से अधिक है। एकेन्द्रिय जीवों में अग्निकाय का प्रायुष्य सबसे न्यून है। यह प्रत्यक्ष में भी अनभव में प्राता है. क्योंकि अग्नि अन्य जीवों की अपेक्षा शीघ्र बुझ ज पृथ्वीकाय का आयुष्य सबसे अधिक है। द्वीन्द्रिय से त्रीन्द्रिय जीवों का आयुष्य कम मानने का क्या कारण है, यह विचारणीय है। फिर चतुरिन्द्रिय का आयुष्य अधिक है, परन्तु द्वीन्द्रिय से कम है, यह भी एक रहस्य है और शोध का विषय है। प्रस्तुत पद में अजीव की स्थिति का विचार नहीं है / उसका कारण यह प्रतीत होता है कि धर्म, अधर्म और आकाश तो नित्य हैं और पुदगलों की स्थिति भी एक समय से लेकर असंख्यात समय की है, जिसका वर्णन पांचवें पद में है। इसलिए अलग से इसका निर्देश आवश्यक नहीं था। फिर, प्रस्तुत पद में तो आयुकर्मकृत स्थिति का विचार है और वह अजीव में अप्रस्तुत है।' 22 पर्याय : एक चिन्तन पांचवें पद का नाम विशेषपद है। विशेष शब्द के दो अर्थ हैं (1) प्रकार और (2) पर्याय / प्रथम पद में जीव और अजीव इन दो द्रव्यों के प्रकार-भेद-प्रभेदों का वर्णन किया है, तो इनमें इन द्रव्यों की अनन्त पर्यायों का वर्णन है। वहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि प्रत्येक द्रव्य की अनन्त पर्यायें हैं तो समग्र की भी अनन्त पर्याय ही होंगी और द्रव्य की पर्याय परिणाम होते हैं तो वह द्रव्य कूटस्थनित्य नहीं हो सकता, किन्तु उसे परिणामोनित्य मानना पड़ेगा। इस सूचन से यह भी फलित होता है कि वस्तु का स्वरूप द्रव्य और पर्याय-रूप है। इस पद का 'विसेस' नाम दिया है, परन्तु इस शब्द का उपयोग सूत्र में नहीं किया गया है / समग्र पद में पर्याय शब्द का ही प्रयोग हुन्मा है। जैनशास्त्रों में इस पर्याय शब्द का विशेष महत्त्व है, इसलिए पर्याय या विशेष में कोई भेद नहीं है। यहाँ पर्याय शब्द प्रकार या भेद और अवस्था या परिणाम, इन अर्थों में प्रयुक्त हा है। जैन आगमों में पर्याय शब्द प्रचलित था परन्तु वैशेषिक दर्शन में 'विशेष' शब्द का प्रयोग होने से उस शब्द का प्रयोग पर्याय अर्थ में और वस्तु के द्रव्य के भेद अर्थ में भी हो सकता है-यह बताने के लिए प्राचार्य ने इस प्रकरण का "विसेस' नाम दिया हो ऐसा ज्ञात होता है। प्रस्तुत पद में जीव और अजीव द्रव्यों में भेदों और पर्यायों का निरूपण है। भेदों का निरूपण तो प्रथम पद में था परन्तु प्रत्येक भेद में अनन्त पर्यायें हैं, इस तथ्य का सूचन करना इस पांचवें पद की विशेषता है। इसमें 24 दंडक और 25 वें सिद्ध इस प्रकार उनकी संख्या और पर्यायों का विचार किया गया है। जीव द्रव्य के नारकादि भेदों की पर्यायों का विचार अनेक प्रकार-अनेक दृष्टियों से किया गया है। इसमें जैनसम्मत अनेकान्तदृष्टि का प्रयोग हुआ है। जीव के नारकादि के जिन भेदों को पर्यायों का निरूपण है उसमें द्रव्यार्थता, प्रदेशार्थता, अवगाहनार्थता, स्थिति, कृष्णादि वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, ज्ञान और दर्शन इन दश दृष्टियों से विचारणा की गई है। विचारणा का क्रम इस प्रकार है--प्रश्न किया गया कि नारक जीवों की कितनी पर्याय हैं ? उत्तर में कहा कि नारक जीवों की अनन्त पर्यायें हैं। इसमें संख्यात, असंख्यात और अनन्त के भेद 122. पन्नवणासूत्र-प्रस्तावना पुण्यविजयजी महाराज, पृ. 60 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org