________________ किया गया है और सिद्ध लोक के अग्रभाग में अवस्थित हैं। यहाँ पर यह स्मरण रखना होगा कि जब छमस्थ मनुष्य समुद्घात करता है तो वह लोक के असंख्यातवें भाग को स्पर्श करता है और जब केवली समुद्घात करते हैं तो वह सम्पूर्ण लोक को स्पर्श करते हैं। जब मनुष्य के प्रात्मप्रदेश सम्पूर्ण लोक में विस्तृत हो जाते हैं, उम समय उसकी प्रात्मा लोकव्याप्त हो जाती है।" प्रश्न है कि अजीव के स्थान के सम्बन्ध में विचार क्यों नहीं किया गया? ऐसा ज्ञात होता है-जैसे जीवों के प्रभेदों में अमुक निश्चित स्थान की कल्पना कर सकते हैं, वैसे पुदगल के सम्बन्ध में नहीं / परमाणु व स्कन्ध समग्न लोकाकाश में हैं किन्तु उनका स्थान निश्चित नहीं है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय ये दोनों समग्र लोकव्यापी हैं, अतः उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गई है। संख्या की दृष्टि से चिन्तन तीसरे पद में जीव और अजीव तत्त्वों का संख्या की दृष्टि से विचार किया गया है। भगवान महावीर के समय और तत्पश्चात् भी तत्त्वों का संख्या-विचार महत्त्वपूर्ण विषय रहा है। एक ओर उपनिषदों के मत से सम्पूर्ण विश्व एक ही तत्त्व का परिणाम है तो दूसरी ओर सांख्य के मत से जीव अनेक हैं किन्तु अजीव एक है। बौद्धों की मान्यता अनेक चित्त और अनेक रूप की है। इस दृष्टि से जैनमत का स्पष्टीकरण आवश्यक था। वह यहाँ पर किया गया है। अन्य दर्शनों में सिर्फ संख्या का निरूपण है, जबकि प्रस्तुत पद में संख्या का विचार अनेक दृष्टियों से किया गया है। मुख्य रूप से तारतम्य का निरूपण अर्थात् कौन किससे कम या अधिक है, इसकी विचारणा इस पद में की गई है। प्रथम, दिशा की अपेक्षा से किस दिशा में जीव अधिक और किस दिशा में कम, इसी तरह जीवों के भेद-प्रभेद की न्यूनाधिकता का भी दिशा की अपेक्षा से विचार किया गया है। इसी प्रकार गति, इन्द्रिय, काय, योग आदि से जीवों के जो जो प्रकार होते हैं, उनमें संख्या का विचार करके अन्त में समग्र जीवों के जो विविध प्रकार होते हैं, उन समग्र जीवों की न्यूनाधिक संख्या का निर्देश किया गया है। इसमें केवल जीवों का ही नहीं किन्तु धर्मास्तिकाय आदि षटद्रव्यों की भी परस्पर संख्या का तारतम्य निरूपण किया गया है। वह तारतम्य द्रव्यदृष्टि और प्रदेशदृष्टि से बताया गया है। प्रारम्भ में दिशा को मुख्य करके संख्या-विचार है और बाद में ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक लोक की दृष्टि से समन जीवों के भेदों का संख्यागत विचार है। जीवों की तरह पुदगलों की संख्या का अल्पबहुत्व भी उन उन दिशाओं में व उन उन लोकों में बताया है। इसके सिवाय द्रव्य, प्रदेश और द्रव्यप्रदेश दोनों दृष्टियों से भी परमाणु और संख्या का विचार है। उसके बाद पुदगलों की अवगाहना, कालस्थिति और उनकी पर्यायों की दृष्टि से भी संख्या का निरूपण किया गया है। इस पद में जीवों का अनेक प्रकार से वर्गीकरण करके अल्पबहत्व का विचार किया है। इसकी संख्या की सूची पर से यह फलित होता है कि उस काल में भी प्राचार्यों ने जीवों की संख्या का तारतम्य (अल्पबहत्व) बताने का इस प्रकार जो प्रयत्न किया है, वह प्रशस्त है। इसमें बताया गया है कि पुरुषों से स्त्रियों की संख्या-- चाहे मनुष्य हो, देव हो या तियंञ्च हो-अधिक मानी गई है। अधोलोक में नारकों में प्रथम से सातवीं नरक में जीवों का क्रम घटता गया है अर्थात् सबसे नीचे के सातवें नरक में सबसे कम नारक जीव हैं। इससे विपरीत क्रम 121. द्रव्यसंग्रह टीका, ब्रह्मदेवकृत, 10 [37] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org