________________ ऊर्ध्वलोक के वेवों में है, नीचे के देवलोकों में सबसे अधिक जीव हैं, अर्थात् सौधर्म में सबसे अधिक और अनुत्तरं विमानों में सबसे कम हैं / परन्तु मनुष्यलोक (तिर्यक्लोक) के नीचे भवनवासी देव हैं। उनकी संख्या सौधर्म से अधिक है और उनसे ऊपर होने पर भी व्यन्तर देवों की संख्या अधिक और उनसे भी अधिक ज्योतिष्क हैं, जो व्यन्तरों से भी ऊपर हैं। , सबसे कम संख्या मनुष्यों की है। इसलिए यह भव दुर्लभ माना जाय यह स्वाभाविक है / इन्द्रियाँ जितनी कम उतनी जीवों की संख्या अधिक / अथवा ऐसा कह सकते हैं कि विकसित जीवों की अपेक्षा अविकसित जीवों की संख्या अधिक है। अनादिकाल से आज तक जिन्होंने पूर्णता प्राप्त कर ली है, ऐसे सिद्ध जीवों की संख्या भी एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा से कम ही है। संसारी जीवों की संख्या सिद्धों से अधिक ही रहती है। इसलिए यह लोक संसारी जीवों से कभी शून्य नहीं होगा, क्योंकि प्रस्तुत पद में जो संख्याएं दी हैं उनमें कभी परिवर्तन नहीं होगा, ये ध्र वसंख्याएँ हैं। सातवें नरक में अन्य नरकों की अपेक्षा सबसे कम नारक जीव हैं तो सबसे ऊपर देवलोक-अनुत्तर में भी अन्य देवलोकों की अपेक्षा सबसे कम जीव हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि जैसे अन्यन्त पुण्यशाली होना दुष्कर है, वैसे ही अन्यन्त पापी होना भी दुष्कर है जीवों का जो ऋमिक विकास माना गया है उसके अनुसार तो निकृष्ट कोटि के जीव एकेन्द्रिय हैं। एकेन्द्रिय में से ही आगे बढ़कर जीव क्रमशः विकास को प्राप्त होते हैं। एकेन्द्रियों और सिद्धों की संख्या अनन्त की गणना में पहुँचती है। प्रभव्य भी अनन्त हैं और सिद्धों की अपेक्षा समग्र रूप से संसारी जीवों की संख्या भी अधिक है और यह बिल्कुल संगत है क्योंकि भविष्य मेंअनागत काल में संसारी जीवों में से ही सिद्ध होने वाले हैं। इसलिए वे कम हों तो संसार खाली हो जायेगा, ऐसा मानना पड़ेगा। एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक ऋम से जीवों की संख्या घटती जाती है। यह क्रम अपर्याप्त जीवों में तो बराबर बना रहता है किन्तु पर्याप्त अवस्था में व्युत्क्रम मालूम पड़ता है। ऐसा क्यों हुआ है, यह विज्ञों के लिए विचारणीय और संशोधन का विषय है। स्थितिचिन्तन चौथे पद में जीवों की स्थिति अर्थात प्रायू का विचार हया है। जीवों की नारकादि रूप में स्थितिअवस्थिति कितने समय तक रहती है, उसकी विचारणा इसमें होने से इस पद का नाम 'स्थिति' पद दिया है / जीव द्रव्य तो नित्य है परन्तु वह जो अनेक प्रकार के रूप-पर्याय-नानाविध जन्म धारण करता है, वे अनित्य हैं। इसलिए पर्यायें कभी तो नष्ट होती ही हैं / अतएव उनकी स्थिति का विचार करना आवश्यक है। वह प्रस्तुत पद में किया गया है। जघन्य आयु कितनी और उत्कृष्ट आयु कितनी-इस तरह दो प्रकार से उसका विचार केवल संसारी जीवों और उनके भेदों को लेकर किया है। सिद्ध तो 'सादीया अपज्जवसिता' सादि-अनन्त होने से उनकी आयु का विचार नहीं किया गया है / अजीव द्रव्य की पर्यायों की स्थिति का विचार भी इसमें नहीं है / क्योंकि उनको पर्याय जीव की आयु की तरह मर्यादित काल में रखी नहीं जा सकती है, इसलिए उसे छोड़ दिया गया हो यह स्वाभाविक है। प्रस्तुत पद में प्रथम जीवों के सामान्य भेदों को लेकर उनकी आयु का निर्देश है। बाद में उसके अपर्याप्त और पर्याप्त भेदों का निर्देश है / उदाहरणार्थ--पहले तो सामान्य नारक की आयु और उसके पश्चात् नारक के [38] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org