________________ किन्तु प्रकृति के धर्म हैं। इस तरह वह आत्मा को सर्वथा अपरिणामी मानता है। कर्तृत्व न होने पर भी भोग आत्मा में ही माना है।'१७ इस भोग के आधार पर आत्मा में परिणाम की संभावना है, इसलिए कितने ही सांख्य भोग को आत्मा का धर्म नहीं मानते।'' उन्होंने प्रात्मा को कटस्थ होने के मन्तव्य की रक्षा की है। कठोपनिषद् आदि में भी प्रात्मा को कटस्थ माना है।'१६ जैनदर्शन में प्रात्मा को सर्वव्यापक महीं माना है, वह शरीर-प्रमाण-व्यापी है। उसमें संकोच और विकास दोनों गुण हैं। प्रात्मा को कूटस्थ नित्य भी नहीं माना है किन्तु परिणामी नित्य माना गया है / इस विराट विश्व में वह विविध पर्यायों के रूप में जन्म ग्रहण करता है और नियत स्थान पर ही वह आत्मा शरीर धारण करता है। कौन सा जीव किस स्थान में है, इस प्रश्न पर चिन्तन करना आवश्यक हो गया तो प्रज्ञापना के द्वितीय पद में स्थान के सम्बन्ध में चिंतन किया है। स्थान भी दो प्रकार का है-एक स्थायी, दूसरा प्रासंगिक / जन्म ग्रहण करने के पश्चात् मृत्युपर्यन्त जीव जिस स्थान पर रहता है, वह स्थायी स्थान है, स्थायी स्थान को पागमकार ने स्व-स्थान कहा है। प्रासंगिक निवास स्थान उपपात और समुदघात के रूप में दो प्रकार का है। जैनदृष्टि से जीव की आयु पूर्ण होने पर वह नये स्थान पर जन्म ग्रहण करता है। एक जीव देवायु को पूर्ण कर मानव बनने वाला है। वह जीव देवस्थान से चलकर मानवलोक में आता है। बीच की जो उसकी यात्रा है, वह यात्रा स्वस्थान नहीं है। वह तो प्रासंगिक यात्रा है, उस यात्रा को उपपातस्थान कहा गया है। दूसरा प्रासंगिक स्थान समुद्घात है / वेदना, मृत्यु, विक्रिया प्रभति विशिष्ट प्रसंगों पर जीव के प्रदेशों का जो विस्तार होता है वह समुद्घात है। समुद्धात के समय आत्मप्रदेश शरीरस्थान में रहते हुए भी किसी न किसी स्थान में बाहर भी समुद्घात-काल पर्यन्त रहते हैं। इसलिए समूद्घात की दृष्टि से जीव के प्रासंगिक निवास स्थान पर विचार किया गया है / इस तरह द्वितीय पद में स्वस्थान, उपपातस्थान और समुद्घातस्थान-तीनों प्रकार के स्थानों के सम्बन्ध में चितन किया है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि प्रथम पद में निर्दिष्ट जीवभेदों में से एकेन्द्रिय जैसे कई सामान्य भेदों के स्थानों पर चिंतन नहीं है, केवल मुख्य मुख्य भेद-प्रभेदों के स्थानों पर ही विचार किया है। संसारी जीवों के लिए उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की दृष्टि से चिंतन किया गया है, पर सिद्धों के लिए स्वस्थान का ही चिंतन किया गया है। सिद्धों का उपपात नहीं होता / अन्य संसारी जीव के नाम, गोत्र, प्रायु आदि कर्मों का उदय होता है जिससे वे एक गति से दूसरी गति में जाते हैं। सिद्ध कर्मों से मुक्त होते हैं। कर्मों के भाव के कारण वे सिद्ध रूप में जन्म नहीं लेते। जैनदृष्टि से जो जीव लोकान्त तक जाते हैं वे प्राकाशप्रदेशों को स्पर्श नहीं करते,.१० इसलिए सिद्धों का उपपातस्थान नहीं है। कर्मयुक्त जीव ही समुद्घात करते हैं, सिद्ध नहीं / इसलिए प्रस्तुत प्रकरण में सिद्धों के स्वस्थान पर ही चिन्तन किया गया है। एकेन्द्रिय जाति के जीव समग्रलोक में व्याप्त हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सामान्य पंचेन्द्रिय जीव लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। नारक एवं तियंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और देव के लिए पृथक-पृथक स्थानों का निर्देश 116. सांख्यकारिका 11 117. सांख्यकारिका 17 118. सांख्यतत्त्वकौमुदी 17 119. कठोपनिषद् 12 // 1819 120. प्रज्ञापनामलयगिरिवृत्ति, पत्रांक 108 [36] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org