________________ 1. म्लेच्छ 2. यवन 3. बर्बर 4. आन्ध्र 5. शक 6. पुलिन्द 7. पौरुणिक 8. कम्बोज 9. पामीर 10. पल्हव 11. दरद 12. कंक 13. खस 14, केकय 15. विगत 16. शिबि 17. भद्र 18. हंस कायन 19. अम्बष्ठ 20. ताय 21. प्रहव 22. वसाति 23. मौलिय 24, क्षुद्रमालक्क 25. शौण्डिक 26. पुण्ड्र 27. शाणवत्य 28, कायव्य 29. दार्च 30. शूर 31. वैयमक 32. उदुम्बर 33. वाल्हीक 34. कुदमान 35. पौरक आदि। इस प्रकार मानव जाति एक होकर भी उसके विभिन्न भेद हो गए हैं। मानव और पशु में जिस प्रकार जातिगत भेद है, वैसे ही मनुष्यजाति में जातिगत भेद नहीं है। मानव सर्वाधिक शक्तिसंपन्न और बौद्धिक प्राणी है / वह संख्या की दृष्टि से अनेक है पर जाति की दृष्टि से एक है। उपर्युक्त चर्चा में जो भेद प्रतिपादित किये गये हैं, वे भौगोलिक और गुणों की दृष्टि से हैं। मोवों का निवासस्थान संसारी और सिद्ध के भेद और प्रभेद की चर्चा करने के पश्चात उन जीवों के निवासस्थान के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। इस चिन्तन का मूल कारण यह है कि प्रात्मा के परिमाण के सम्बन्ध में उपनिषदों में अनेक कल्पनाएँ हैं / इन सभी कल्पनात्रों के अन्त में ऋषियों की विचारधारा प्रात्मा को व्यापक मानने की ओर विशेष रही है। प्रायः सभी वैदिक दर्शनों ने प्रात्मा को व्यापक माना है / हाँ, आचार्य शंकर और प्राचार्य रामानुज प्रादि ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार इसमें अपवाद हैं / उन्होंने ब्रह्मात्मा को व्यापक और जीवात्मा को प्रणुपरिमाण माना है। बृहदारण्यक उपनिषद् में प्रात्मा को चावल या जौ के दाने के परिमाण माना है।०८ कठोपनिषद् में आत्मा को 'अंगुष्ठपरिमाण' का लिखा है 06 तो छान्दोग्योपनिषद् में प्रात्मा को 'बालिश्त' परिमाण का कहा है।.० मैत्रीउपनिषद् में प्रात्मा को अणु की तरह सूक्ष्म माना है। कठोपनिषद्', छान्दोग्योपनिषद् 13 और श्वेताश्वेतर-उपनिषद्'४ में प्रात्मा को अणु से अणु और महान् से महान् भी कहा है। सांख्यदर्शन में प्रात्मा को कूटस्थ नित्य माना है अर्थात् प्रात्मा में किसी भी प्रकार का परिणाम या विकार नहीं होता है / संसार और मोक्ष प्रात्मा का नहीं प्रकृति का है / 14 सुख-दुःख-ज्ञान, ये आत्मा के नहीं 107. (क) मुण्डक-उपनिषद् 116 (ख) वैशेषिकसूत्र 7122 (ग) न्यायमंजरी, पृष्ठ 468 (विजय) (घ) प्रकरणपंजिका, पृष्ठ 158 108. बृहदारण्यक-उपनिषद्, 516.1 109. कठोपनिषद् 2 / 2 / 12 110. छान्दोग्योपनिषद् 5 / 18 / 1 111. मंत्री-उपनिषद् 6138 112. कठोपनिषद् 1 / 2 / 20 113. छान्दोग्योपनिषद् 3 / 14 / 3 114. श्वेताश्वेतर-उपनिषद् 3 / 20 115. सांख्यकारिका 62 . [ 35 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org