________________ का प्रायुष्य बांधा है उसी प्रकार का नवीन भव धारण करता है। प्राय के सोपक्रम और निरुपक्रम ये दो भेद हैं। इनमें देवों और नारकों में तो निरुपक्रम प्रायु है, क्योंकि उनको आकस्मिक मृत्यु नहीं होती और प्रायु के छह माह शेष रहने पर वे नवीन मागमी भव का आयुष्य बांधते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीवों में दोनों प्रकार की प्रायु है। निरुपक्रम हो तो आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहने पर पर-भव का आयुष्य बांधते हैं और सोपक्रम हो तो विभाग में अथवा विभाग का भी विभाग करते करते एक प्रावली मात्र आयु शेष रहने पर पर-भव का आयुष्य बांधते हैं / पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य में असंख्यात वर्ष की आयु वाला हो तो नियम से आयु के छह माह शेष रहने पर और संख्यात वर्ष की आयु वाले यदि निरुपक्रम प्रायु वाले हों तो आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर आयुष्य बांधते हैं / जो सोपक्रम आयु वाले हों तो एकेन्द्रिय के समान जानना चाहिये / प्रायुष्यबंध के छह प्रकार हैं-जातिनाम निधत्त-पायुनाम, गतिनाम, स्थितिनाम, अवगाहनानाम, प्रदेशनाम और अनुभावनानाम निधत्त / प्रायु इन सभी में आयुकर्म का प्राधान्य है और उसके उदय होने से तत्सम्बन्धी उन उन जाति प्रादि कर्म का उदय होता है। सातवें पद में सिद्ध के अतिरिक्त जितने भी संसारी जीव हैं उनके श्वासोच्छ्वास के काल की चर्चा है। आचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि जितना दुःख अधिक उतने श्वासोच्छ्वास अधिक होते हैं और अत्यन्त दुःखी की तो निरन्तर श्वासोच्छवास की प्रक्रिया चाल रहती है।'५५ ज्यों-ज्यों अधिक सुख होता है त्यों-त्यों श्वासोच्छवास लम्बे समय के बाद लिये जाते हैं, यह अनुभव की बात है।'३ श्वासोच्छ्वास की क्रिया भी दुःख है। देवों में जिनकी जितनी अधिक स्थिति है उतने ही पक्ष के पश्चात उनकी श्वासोच्छवास की क्रिया होती है, का विस्तार से निरूपण है। 27 पाठवें संज्ञापद में जीवों की संज्ञा के सम्बन्ध में चिंतन किया है। संज्ञा दश प्रकार की है--पाहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक और ओघ / इन संज्ञाओं का 24 दण्डकों की अपेक्षा से विचार किया है और संज्ञा-सम्पन्न जीवों के अल्पबहुत्व का भी विचार किया है / नरक में भयसंज्ञा का, तिर्थच में प्राहारसंज्ञा का, मनुष्य में मैथुनसंज्ञा का और देवों में परिग्रहसंज्ञा का बाहुल्य है। . नवे पद का नाम योनिपद है। एक भव में से प्रायु पूर्ण होने पर जीव अपने साथ कार्मण और तेजस शरीर लेकर गमन करता है / जन्म लेने के स्थान में नये जन्म के योग्य औदारिक आदि शरीर के योग्य पुदगलों . को ग्रहण करता है। उस स्थान को योनि अथवा उद्गमस्थान कहते हैं / प्रस्तुत पद में योनि का अनेक दृष्टियों से विचार किया गया है। शीत, उष्ण, शीतोष्ण, सचित्त, अचित्त, मिश्र, संवृत, विवृत और संवृतविवृत, इस प्रकार जीवों के 9 प्रकार की योनि-स्थान अर्थात् उत्पत्तिस्थान हैं / इन सभी का विस्तार से निरूपण है। दसवें पद में द्रव्यों के चरम और अचरम का विवेचन है / जगत् की रचना में कोई चरम के अन्त में होता है तो कोई अचरम के अन्त में नहीं किन्तु मध्य में होता है / प्रस्तुत पद में बिभिन्न द्रव्यों के लोक-प्रलोक माश्रित चरम और अचरम के सम्बन्ध में विचारणा की गई है। चरम-अचरम की कल्पना किसी अन्य की अपेक्षा से ही संभव है / प्रस्तुत पद में छः प्रकार के प्रश्न पूछे गये हैं-१. चरम है, 2. अचरम है, 3. चरम हैं (बहुवचन), 125. अतिदुःखिता हि नरयिकाः दुःखितानां च निरन्तरं उच्छ्वासनिःश्वासो, तथा लोके दर्शनात् / -प्रज्ञापना टीका, पत्र 220 126. सुखितानां च यथोत्तरं महानुच्छवास-निःश्वासक्रियाविरहकालः। --प्रज्ञापना टीका पत्र 221 127. यथा-यथाऽऽयुषः सागरोपमवृद्धिस्तथा-तथोच्छवास-नि:श्वासक्रियाविरहप्रमाणस्यापि पक्षवृद्धिः / [41] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org