Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 260 ] | प्रज्ञापनासूत्र तेजोलेश्यायुक्त वाणव्यन्तरों का कथन-इनका कथन असुरकुमारों के समान समझना चाहिए। ऐसी स्थिति में तेजोलेश्याविशिष्ट वाणव्यन्तरों के संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत, यों दो भेद न करके मायि-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायि-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक, ये दो भेद कहने चाहिए, क्योंकि तेजोलेश्यावाले वाणव्यन्तरों में' असंज्ञीजीवों का उत्पाद नहीं होता। पद्मलेश्या-शुक्ललेश्या-विशिष्ट जीवों के प्राहारादिसूत्र---इन दोनों लेश्याओं वाले जीवों के आहारादिसूत्र तेजोलेश्या के समान समझने चाहिए। विशेषतः यह है कि जिन जीवों में ये दो लेश्याएँ पाई जाती हों, उन्हीं के विषय में ये सूत्र कहने चाहिए, अन्य जीवों के विषय में नहीं। ये दोनों लेश्याएँ पंचेन्द्रियतिथंचों, मनुष्यों और वैमानिक देवों में ही पाई जाती हैं, शेष जीवों में नहीं। सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक समाप्त 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 343 2. वही, मलय, वृत्ति, पत्रांक 343 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org