Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 420] [प्रज्ञापनासूत्र [5] परिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-उरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य भुयपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य / 1485-5 प्र. भगवन ! परिसर्प स्थलचर-निर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ. | गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-उरःपरिसर्प स्थलचरतिर्यञ्चयोतिक-पंचेन्द्रिय प्रौदारिक शरीर और भुजपरिसर्प स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय प्रौदारिक शरीर / [6] उरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियोरालियसरीरे गं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते। तं जहा–सम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य गम्भवक्कंतियउरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य / [1485-6 प्र. भगवन् ! उर:परिसर्प स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय प्रौदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है / जैसे कि सम्मूच्छिम उर:परिसर्प स्थलचरतिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर और गर्भज उरःपरिसर्प स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर / [7] सम्मुच्छिमे दुविहे पण्णते। तं जहा-अपज्जत्तसम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य पज्जत्तसम्मच्छिमउरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य। [1485-71 सम्मूच्छिम (-उरःपरिसर्प स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर) दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार—अपर्याप्तक सम्मूच्छिम उर परिसर्प स्थलचर-तियंञ्चयोनिक पंचेन्द्रिय औदारिकशरोर और पर्याप्तक सम्मूच्छिम उर:परिमर्प-स्थलचर-तिर्थञ्चयोनिकपंचेन्द्रिय औदारिक शरीर / [8] एवं गम्भवक्कंतिय उरपरिसप्पचउक्कओ भेदो। [1485-8] इसी प्रकार गर्भज उरःपरिसर्प (स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-ग्रौदारिक शरीर) के भी (पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो प्रकार मिला कर सम्मूच्छिम और गर्भज दोनों के कुल) चार भेद समझ लेने चाहिए। [9] एवं भुयपरिसप्पा वि सम्मुच्छिम-गम्भवक्कंतिय-पज्जत्त-अपज्जत्ता। [1485-6 | इसी प्रकार भुजपरिसर्प (स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरोर) के भी सम्मूच्छिम एवं गर्भज (तथा दोनों के) पर्याप्तक और अपर्याप्तक (ये चार भेद समझने चाहिए)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org