________________ पुरुष चरित्र५, में श्रमण भगवान महावीर के द्वारा छपस्थ अवस्था में दश महास्वप्न देखने का उल्लेख है। उन स्वप्नों में तृतीय स्वप्न यह था--एक रंग-बिरंगा पुस्कोकिल उनके सामने समुपस्थित था। उस स्वप्न का फल था-वे विविध ज्ञानमय द्वादशांग श्रुत की प्रज्ञापना करेंगे। इसमें 'प्रज्ञापयति' और 'प्ररूपयति' इस क्रियाओं से यह स्पष्ट है कि भगवान् का उपदेश प्रज्ञापना-प्ररूपणा है। उस उपदेश को मूल आधार बनाकर प्रस्तुत प्रामम की रचना की गई, इसलिए इसका नाम 'प्रज्ञापना' रखा गया। प्रस्तुत प्रागम के रचयिता श्यामाचार्य ने इसका सामान्य नाम 'अध्ययन' दिया है। और विशेष नाम 'प्रज्ञापना' दिया है। उनका अभिमत है-- भगवान् महावीर ने सर्वभावों की प्रज्ञापना की है। उसी प्रकार मैं भी यहाँ सर्वभावों की प्रज्ञापना करने वाला हूँ। अतः इस आगम का विशेष नाम 'प्रज्ञापना' है 27 / उत्तराध्ययन की तरह प्रस्तुत प्रागम का पूर्ण नाम भी 'प्रज्ञापनाध्ययन' यह हो सकता है। प्रज्ञापना सूत्र में एक ही अध्ययन है, जबकि उत्तराध्ययन में छत्तीस अध्ययन हैं। प्रज्ञापना के प्रत्येक पर के अन्त में 'पनवणाए भगवईए' यह पाठ मिलता है, इसीलिए यह स्पष्ट है कि अंग साहित्य में जो स्थान भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) का है, वही स्थान उपांगों में 'प्रज्ञापना' का है। अंगसाहित्य में जहाँ-तहाँ 'भगवान् ने यह कहा इस प्रकार के वाक्य उपलब्ध होते हैं। यहाँ पर 'पण्णत्तं' शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत आगम में भी प्रज्ञापना शब्द का प्राधान्य है, संभवतः इसीलिए श्यामाचार्य ने इसका नाम प्रज्ञापना रखा हो। भगवतीसूत्र में प्रार्यस्कन्धक का वर्णन है। वहाँ पर स्वयं भगवान महावीर ने कहा- "एवं खल मए खन्धया ! चउन्विहे लोए पण्णत्ते" / इसी तरह प्राचारांग आदि आगमों में अनेक स्थलों पर भगवान् के उपदेश के लिए प्रज्ञापना शब्द का प्रयोग हुआ है। प्राचार्य मलयगिरि के अभिमतानुसार प्रज्ञापना में जो 'प्र' उपसर्ग है, वह भगवान् महावीर के उपदेश की विशेषता को सूचित करता है। भगवान महावीर के समय में श्रमण परम्परा के अन्य पाँच सम्प्रदाय विद्यमान थे / उनमें से कुछ ऐसे थे जिनके अनुयायियों की संख्या महावीर के संघ से भी अधिक थी। उन पाँच सम्प्रदायों का नेतृत्व क्रमशः पूरण काश्यप, मंखली गोशालक, अजितकेश कम्बल, पकुध कात्यायन और संजय बेलट्ठीपुत्र कर रहे थे। परिस्थितियों के वात्याचक्र से वे पाँचों सम्प्रदाय काल के गर्भ में विलीन हो गये। वर्तमान में उनका अस्तित्व इतर साहित्य में ही उपलब्ध होता है / तथागत बुद्ध की धारा विदेशों तक प्रवाहित हई और भारत में लगभग विच्छिन्न हो गई थी। यदि हम उन सभी धर्माचार्यों के दार्शनिक पहलुओं पर चिन्तन करें तो स्पष्ट होगा कि भगवान महावीर ने जीव, अजीव प्रभति तत्त्वों का जो सूक्ष्म विश्लेषण किया है, वैसा सक्ष्म विश्लेषण उस युग के अन्य कोई भी धर्माचार्य नहीं कर सके / यहाँ तक कि तथागत बुद्ध तो 'अव्याकृत' कहकर प्रात्मा, परमात्मा प्रादि प्रश्नों को टालने का ही प्रयास करते रहे। 30 25. त्रिषष्टिशलाकापूरुष चरित्र 1013 / 146 26. "अज्झयणमिणं चित्तं" ---प्रज्ञापना गा. 3. 27. "उवदंसिया भगवया पण्णवणा सव्व भावाणं / जह वणियं भगवया अहमवि तह वण्णइस्मामि। -प्रज्ञापना गा. 2-3 28. भगवती सूत्र, 2 / 1190, 29. तेन खलु समयेन राजगृहे नगरे षट् पूर्णाद्याः शास्तारोऽसर्वज्ञाः सर्वज्ञमानिनः प्रतिवसतिस्म / तद्यथा-पूरण काश्सपो, मश्करीगोशालिपुत्रः, संजयी वैरट्ठीपुत्रोऽजितः केशकम्वलः, ककुदः कत्यायनो, निग्रंथो ज्ञातपुत्रः / " (दिव्यावदान, 12 // 1436144) 30. मिलिन्द प्रश्न–२।२५ से 33. पृष्ठ 41 से 52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org