________________ में ऐतिहासिक दृष्टि से पहले किसका निर्माण हुआ? जीवाभिगम में अनेक स्थलों पर प्रज्ञापना के पदों का उल्लेख किया है। उदाहरण के रूप में५७ सूत्र--४, 5, 13, 15, 20, 35, 36, 38, 41, 86, 91, 100, 106, 113,117, 118, 120, 121, 122, इनके अतिरिक्त राजप्रश्नीयसूत्र का उल्लेख भी सूत्र-१०९, 110 में हुआ है और प्रौपपातिकसूत्र का उल्लेख सूत्र 111 में हुमा है | इन सूत्रों के उल्लेख से यह जिज्ञासा सहज रूप से हो सकती है कि इन प्रागमों के नाम वल्लभीवाचना के समय सुविधा की दृष्टि से उसमें रखे गये हैं या स्वयं प्रागमरचयिता स्थविर भगवान ने रखे हैं ? यदि लेखक ही ने रखे हैं तो जीवाभिगम की रचना प्रज्ञापना के बाद की होनी चाहिए। उत्तर में निवेदन है कि जीवाजीवाभिगम आगम की रचनाशैली इस प्रकार की है कि उसमें क्रमशः जीव दों का निरूपण है। उन भेदों में जीव की स्थिति, अन्तर, अल्पबहुत्व आदि का वर्णन है। सम्पूर्ण आगम दो विभागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम विभाग में अजीव और संसारी जीवों के भेदों का वर्णन है, तो दूसरे विभाग में सम्पूर्ण संसारी और सिद्ध जीवों का निरूपण है। एक भेद से लेकर दश भेदों तक का उसमें निरूपण हा है। किन्तु प्रज्ञापना में विषयभेद के साथ निरूपण करने की पद्धति भी पृथक् है और वह छत्तीस पदों में निरूपित है। केवल प्रथम पद में ही जीव और अजीव का भेद किया गया है। अन्य शेष पदों में जीवों का स्थान, अल्पबहत्त्व, स्थिति, आदि का क्रमशः वर्णन है। एक ही स्थान पर जीवों की स्थिति आदि का वर्णन प्राप्त है। पर जीवाजीवाभिगम में उन सभी विषयों की चर्चा एक साथ नहीं है। जीवाजीवाभिगम से प्रज्ञापना में वस्तुविचार का प्राधिक्य भी रहा हया है। इससे यह स्पष्ट है कि प्रज्ञापना की रचना से पूर्व जीवाजीवाभिगम की रचना हुई है। अब रहा प्रज्ञापना के नाम का उल्लेख जीवाजीवाभिगम में हुआ है, उसका समाधान यही है कि प्रज्ञापना में उन विषयों की चर्चा विस्तार से हुई है। इसी कारण से प्रज्ञापना का उल्लेख भगवती आदि अंग-साहित्य में भी हुआ है और यह उल्लेख प्रागमलेखन के युग का है / अागम प्रभावक पुण्यविजयजी म. का यह भी मन्तव्य है कि जैसे आचारांग, सूत्र कृतांग प्रादि प्राचीन आगमों में मंगलाचरण नहीं है वैसे ही जीवाजीवाभिगम में भी मंगलाचरण नहीं है। इसलिए उसकी रचना प्रज्ञापना से पहले की है। प्रज्ञापना के प्रारम्भ में मंगलाचरण किया गया है। इसलिए वह जीवाजीवाभिगम से बाद की रचना है। भंगलाचरण : एक चिन्तन मंगलाचरण प्रागमयुग में नहीं था। आगमकार अपने अभिधेय के साथ ही प्रागम का प्रारम्भ करते थे। आगम स्वयं मंगलस्वरूप होने के कारण उसमें मंगलवाक्य अनिवार्य नहीं माना गया। प्राचार्य वीरसेन और प्राचार्य जिनसेन ने कषायपाहुड की जयधवला टीका में लिखा है-पागम में मंगलवाक्य का नियम नहीं है। क्योंकि परमागम में ध्यान को केन्द्रित करने से नियम से मंगल का फल सम्प्राप्त हो जाता है। यही कारण है कि प्राचार्य गुणधर ने अपने कषायपाहुड ग्रन्थ में मंगलाचरण नहीं किया। 57. देखिए, सूत्र संख्या के लिए जीवाभिगम, देवचंद-लालभाई द्वारा प्रकाशित ई० सन् 1919 की आवृत्ति ! 60. देखिए, पन्नवणासुतं, भाग 2., प्रका. महावीर जैन विद्यालय बम्बई, प्रस्तावना पृष्ठ 14-15 61. एत्थ पुण णियमो पत्थि, परमागमुवजोगम्मिणियमेण मंगलफलोवलंभादो। -कसायपाहुड, भाग 1, गाथा 1, पृष्ठ 9. 62. एदस्थ अत्थविसेसस्स जाणावण8 गुणहरभट्टारएण गंथस्सादीए ण मंगलं कयं / -कसायपाहुड, भाग 1, गाथा 1, पृष्ठ 9. [21] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org