Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ दण्डयं वत्तइस्सामि" कहा है, वैसे ही षट्खण्डागम में भी चौदह गुणस्थानों में गति आदि चौदह मार्गणास्थानों द्वारा जीवों के अल्पबहुत्व पर चिन्तन करने के पश्चात् प्रस्तुत प्रकरण के अन्त में महादण्डक का उल्लेख किया है। प्रज्ञापना में जीव को केन्द्र मानकर निरूपण किया गया है तो षट्खण्डागम में कर्म को केन्द्र मानकर विश्लेषण किया गया है, किन्तु खुद्दाबंध (क्षुद्रकबंध) नामक द्वितीय खण्ड में जीव बंधन का विचार चौदह मार्गणा स्थानों के द्वारा किया गया है, जिसकी शैली प्रज्ञापना से अत्यधिक मिलती-जुलती है। प्रज्ञापना५५ की अनेक गाथाएँ षट्खण्डागम में कुछ शब्दों के हेरफेर के साथ मिलती हैं। यहां तक कि पावश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यक की गाथानों से भी मिलती हैं। इसी प्रकार प्रज्ञापना और षट्खण्डागम इन दोनों का प्रतिपाद्य विषय एक है, दोनों का मूल स्रोत भी एक है। तथापि भिन्न-भिन्न लेखक होने से दोनों के निरूपण की शैली पृथक पृथक रही है। कहीं कहीं पर तो षटखण्डागम से भी प्रज्ञापना का निरूपण अधिक व्यवस्थित रूप से हमा है। मेरा यहाँ पर यह तात्पर्य नहीं है कि षटखण्डागम के लेखक प्राचार्य पुष्पदन्त और प्राचार्य भूतबलि ने प्रज्ञापना को नकल की है, पर यह पूर्ण सत्य-तथ्य है कि प्रज्ञापना को रचना षट्खण्डागम से पहले हुई थो / मत: उसका प्रभाव षखण्डागम के रचनाकार पर अवश्य ही पड़ा होगा। जीवाभिगम और प्रज्ञापना जीवाभिगम तृतीय उपांग है और प्रज्ञापना चतुर्थ उपांग है। ये दोनों पागम अंगबाह्य होने से स्थविरकृत हैं। जीवाभिगम स्थानांग अंग का उपांग है तो प्रज्ञापना, समवायांग का। जीवाभिगम और प्रज्ञापना इन दोनों ही आगमों में जीव और अजीव के विविध स्वरूपों का निरूपण किया गया है। इन दोनों में प्रथम अजीव का निरूपण करने के पश्चात् जीव का निरूपण किया गया है। दोनों ही प्राममों में मुख्य अन्तर यह है कि जीवाभिगम, स्थानांग का उपांग होने से उसमें एक से लेकर दश भेदों का निरूपण है / दश तक का निरूपण दोनों में प्राय: समान-सा है / प्रज्ञापना में वह क्रम मागे बढ़ता है। प्रश्न यह है कि प्रज्ञापना और जीवाभिमम इन दोनों प्रागमों 54. षट्खण्डागम, पुस्तक 7, पृ. 745 55. समयं वक्ताणं, समयं तेसि सरीर निव्वत्ती। समयं प्राणुग्गहणं, समयं ऊसास-नीसासे / / एक्कस्स उ जं गहणं, बहूण साहारणाण तं चेव / जं बहुयाणं गहण समासयो तं पि एगस्स / / साहारणमाहारो, साहारणमाणुपाण गहणं च / ‘साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं एयं / / --प्रज्ञापना, गा. 97-101. तुलना करेंसाहारणमाहारो, साहारणमाणपाणगहणं च / साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं भणिदं / एयस्स अणुग्गहणं बहूणसाहारणाणमेयस्स / एयस्स जं बहूर्ण समासदो तं पि होदि एयस्स // आवश्यकनियुक्ति-गा. 31 से और विशेषावश्यकभाष्य मा० 604 से तुलना करेंषट्खण्डागम-पुस्तक 13, गाथा सूत्र 4 से 9, 12, 13, 15, 16. / ... [20] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org