________________ तथापि यह स्पष्ट है कि यह सूत्र है और प्रथम मंगल भी है, इसीलिए नमस्कारमहामंत्र केवल पावश्यकसूत्र का ही अंश नहीं, किन्तु सर्वश्रुत का आदिमंगल रूप भी है। किसी भी श्रुत का पाठ ग्रहण करते समय नमस्कार करना प्रावश्यक है। प्राचार्य भद्रबाहु ने नमस्कारमहामंत्र की उत्पत्ति, अनुत्पत्ति की गहराई से चर्चा विविध नयों की दृष्टि से की है। प्राचार्य जिनभद्र ने तो अपने विस्तृत भाष्य में दार्शनिक दृष्टि से शब्द की नित्यअनित्यता की चर्चा कर नयदष्टि से उस पर चिन्तन किया है। इस महामंत्र के रचयिता अज्ञात हैं। एक प्राचीन प्राचार्य ने तो स्पष्ट रूप से लिखा है "आगे चौबीसी हई अनन्ती, होसी बार अनन्त ! नवकार तणी कोई आदि न जाने, यमाख्यो भगवन्त" !! महानिशीथ, जिसके उद्धारक प्राचार्य हरिभद्र माने जाते हैं, उसमें महामंत्र के उद्धारक आर्य वज्रस्वामी माने गये हैं और प्राचार्य हरिभद्र के बाद होने वाले धवला टीकाकार वीरसेन प्राचार्य की दृष्टि से नमस्कार के कर्ता प्राचार्य पुष्पदन्त हैं। प्राचार्य पुष्पदन्त का अस्तित्वकाल वीरनिर्वाण की सातवीं शताब्दी (ई. पहली शताब्दी) है। हम पूर्व ही बता चुके हैं कि खारवेल के शिलालेख जो ई. पूर्व 152 हैं, उसमें "नमो अरहताणं, नमो सव्वसिद्धाणं," ये पद प्राप्त होते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि नमस्कारमहामंत्र का अस्तित्व आचार्य पुष्पदन्त से बहुत पहले था। श्वेताम्बर-परम्परा की दृष्टि से नमस्कारमहामंत्र के रचयिता तीर्थंकर और गणधर हैं। जैसा कि प्रावश्यकनियुक्ति से स्पष्ट है। प्रस्तिकाय : एक चिन्तन प्रज्ञापता के प्रथम पद में ही जीव और अजीव के भेद और प्रभेद बताकर फिर उन भेद और प्रभेदों की चर्चाएँ अगले पदों में की हैं। प्रथम पद में अजीव के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण है / अजीब का निरूपण रूपी और प्ररूपी इन दो भेदों में करके रूपी में पुदगल द्रव्य का निरूपण किया है और प्ररूपी में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, प्रादि के रूप में अजीव द्रव्य का वर्णन किया गया है। किन्तु प्रस्तुत आगाम में इन भेदों का वर्णन करते समय अस्तिकाय शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु उनके स्थान पर द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है जो पागम की प्राचीनता का प्रतीक है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन तीनों को देश और प्रदेश इन भेदों में विभक्त किया है। किन्तु अस्तिकाय शब्द का अर्थ कहीं पर भी मूल पागम में नहीं दिया गया है। प्रद्धा-समय के साथ अस्तिकाय शब्द व्यवहृत नहीं हया है। इससे धर्मास्तिकाय आदि के साथ प्रद्धा समय का जो अन्तर है, वह स्पष्ट होता है। प्रस्तुत प्रागम में जीव के साथ अस्तिकाय शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि जीव के प्रदेश नहीं है, क्योंकि प्रज्ञापना के पांचवें पद में जीव के प्रदेशों पर चिन्तन किया गया है / प्रथम पद में जिनको अजीव और जीव के मौलिक भेद कहे हैं, उन्हें ही पाँचवें पद में जीवपर्याय और अजीवपर्याय कहा है / तेरहवें पद में उन्हीं को परिणाम नाम से प्रतिपादित किया है। अजीव के अरूपी और रूपी ये दो भेद बताकर धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और श्रद्धा समय इन चार को प्ररूपी अजीव के अन्तर्गत लिया गया है। धर्म, अधर्म और आकाश के स्कन्ध, देश में 65. (क) आवश्यकनियुक्ति, गाथा 644 से 646 (ख) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3335 से 3338 तक 66. षट्खण्डागम, धवला टीका, भाग 1, पृष्ठ 41 तथा भाग 2, प्रस्तावना पृष्ठ 33 से 41 [ 23] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org