Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ प्रत्येक के विभाग किये गये हैं। यहां पर देश का अर्थ धर्मास्तिकाय आदि का बुद्धि के द्वारा कल्पित दो तीन प्रादि प्रदेशात्मक विभाग है और प्रदेश का अर्थ धर्मास्तिकाय आदि का बुद्धिकल्पित प्रकृष्ट देश जिसका पुनः विभाग न हो सके, निविभाग विभाग प्रदेश है / धर्मास्तिकाय आदि के समग्र प्रदेश का समूह स्कंध है। 'श्रद्धा' काल को कहते हैं, अद्धारूप समय अद्धासमय है। वर्तमान काल का एक ही समय 'सत' होता है / अतीत और अना तो नष्ट हो चुके होते हैं या उत्पन्न नहीं हुए होते हैं। अतः काल में देश-प्रदेशों के संघात की कल्पना नहीं है। असंख्यातसमय आदि की समूहरूप प्राबलिका की कल्पना व्यावहारिक है। रूपी अजीव के अन्तर्गत पुद्गल को लिया गया है। उसके स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु पुद्गल ये चार प्रकार हैं। पुद्गल वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानयुक्त होता है। पांच वर्ण के बीस भेद, दो गंध के छियालीस भेद, पांच रस के सौ भेद, पाठ स्पर्श के एक सौ चौरासी भेद, पांच संस्थान के सौ भेद, इस तरह रूपी अजीव के पांच सौ तीस भेद और अरूपी अजीव के तीस भेद का निरूपण हमा है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से प्रस्तिकाय शब्द 'अस्ति' और 'काय' इन दो शब्दों के मेल से निर्मित हुआ है। अस्ति का अर्थ 'सत्ता' अथवा 'अस्तित्व' है और काय का अर्थ यहाँ पर शरीररूप अस्तिवान् के रूप में नहीं हुआ है / क्योंकि पंचास्तिकाय में पुद्गल के अतिरिक्त शेष अमूर्त हैं, अतः यहाँ काय का लाक्षणिक अर्थ है-जो अवयवी द्रव्य हैं, वे प्रस्तिकाय हैं और जो निरवयव द्रव्य है, वह अनस्तिकाय है। अपर शब्दों में यों कह सकते हैं जिसमें विभिन्न अंश या हिस्से हैं, वह अस्तिकाय है। यहाँ यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि प्रखण्ड द्रव्यों में अंश या अवयव की कल्पना करना कहाँ तक तर्कसंगत हैं ? क्योंकि धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों एक एक हैं, पविभाज्य और अखण्ड हैं / अतः उनके अवयवी होने का तात्ययं क्या है ? कायत्व का अर्थ 'साबयत्व' यदि हम मानते हैं तो एक समस्या यह उपस्थित होती है कि परमाणु तो अविभाज्य, निरंश और निरवयव है तो क्या वह अस्तिकाय नहीं है ? परमाण पूदगल का ही एक विभाग है और फिर भी उसे अस्तिकाय माना है / इन सभी प्रश्नों पर जैन मनीषियों ने चिन्तन किया है। उन्होंने उन सभी प्रश्नों का समाधान भी किया है। यह सत्य है कि धर्म, अधर्म और आकाश अविभाज्य और अखण्ड द्रव्य हैं पर क्षेत्र की दृष्टि से वे लोकव्यापी हैं। इसलिए क्षेत्र की अपेक्षा से सावयवत्व की अवधारणा या विभाग की कल्पना वैचारिक स्तर पर की गई है। परमाणु स्वयं में निरंश, अविभाज्य और निरवयव है पर परमाणु स्वयं कायरूप नहीं है, पर जब वह परमाणु स्कन्ध का रूप धारण करता है तो वह कायत्व और सावयवत्व को धारण कर लेता है। इसलिए परमाणु में भी कायत्व का सद्भाव माना है। अस्तिकाय और अनस्तिकाय इस प्रकार के वर्गीकरण का एक प्राधार बहुप्रदेशत्व भी माना गया है। जो बहुप्रदेश द्रव्य हैं, वे अस्तिकाय हैं और एक प्रदेश द्रव्य अनस्तिकाय हैं / यहाँ भी यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य स्वद्रव्य की अपेक्षा से तो एकप्रदेशी हैं, च कि वे अखण्ड हैं। सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र ने इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए स्पष्ट लिखा है--धर्म, अधर्म और आकाश में बहुप्रदेशत्व द्रव्य की अपेक्षा से नहीं है अपितु क्षेत्र की अपेक्षा से है। क्षेत्र की दृष्टि से भी धर्म और अधर्म को असंख्यप्रदेशी कहा है और प्राकाश को अनन्तप्रदेशी कहा है। इसलिए उपचार से उनमें कायत्व की अवधारणा की गई है। पुद्गल परमाणु की अपेक्षा से नहीं, किन्तु स्कन्ध की अपेक्षा से बहुप्रदेशी है और अस्तिकाय भी बहुप्रदेशत्व की दृष्टि से है। परमाणु स्वयं युद्गल का एक अंश है। यहाँ पर कायत्व का अर्थ विस्तारयुक्त होना है। विस्तार की प्रस्तुत अवधारणा क्षेत्र की अवधारणा पर अवलम्बित हैं। जो द्रव्य 67. यावन्मानं प्राकाशं अविभागि पुदगलावृष्टब्धम् / __ तं खलु प्रदेशं जानीहि सर्वाणुस्थानदानार्हम् / / --द्रव्यसंग्रह संस्कृत छाया 27. [24] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org