________________ द्वादशांगी में केवल भगवतीसूत्र को छोड़कर अन्य किसी भी आगम के प्रारम्भ में मंगलवाम्य नहीं है। वैसे ही उपांग में प्रज्ञापना के प्रारम्भ में मंगलगाथाएँ आई हैं। उन गाथानों में सर्वप्रथम सिद्ध को नमस्कार किया गया है। उसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार किया है / प्रज्ञापना की प्राचीनतम जितनी भी हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध हुई हैं, उन सभी प्रतियों में पंचनमस्कार महामंत्र उकित है / प्रज्ञापना के टीकाकार प्राचार्य हरिभद्र और प्राचार्य मलयगिरि ने पंचनमस्कार महामंत्र की व्याख्या नहीं की है। इस कारण प्रागमप्रभावक पुण्यविजयजी म., पं. दलसुखभाई मालवणिया आदि का अभिमत है कि प्रज्ञापना के निर्माण के समय नमस्कारमहामंत्र उसमें नहीं था। किन्तु लिपिकर्ताओं ने प्रारम्भ में उसे संस्थापित किया हो / षट्खण्डागम में भी प्राचार्य वीरसेन के अभिमतानुसार पंचनमस्कार महामंत्र का निर्देश है। प्रज्ञापना में प्रथम सिद्ध को नमस्कार कर उसके पश्चात् अरिहंत को नमस्कार किया है, जबकि पंचनमस्कर महामंत्र में प्रथम अरिहंत को नमस्कार है और उसके पश्चात् सिद्ध को। उत्तराध्ययन प्रादि आगम साहित्य में यह स्पष्ट उल्लेख है कि तीर्थकर दीक्षा ग्रहण करते समय सिद्धों को नमस्कार करते हैं। इस दृष्टि से जनपरम्परा में प्रथम सिद्धों को नमस्कार करने की परम्परा प्रारम्भ हुई। तीर्थकर अर्थात अरिहन्त प्रत्यक्ष उपकारी होने से पंचनमस्कार महामंत्र में उन्हें प्रथम स्थान दिया गया है। ई. पूर्व महाराज खारवेल, जो कलिंगाधिपति थे, उन्होंने जो शिलालेख उटैंकित करवाये, उनमें प्रथम अरिहन्त को नमस्कार किया गया है और उसके बाद सिद्ध को। मुर्धन्य मनीषियों का यह अभिमत है कि जब तक तीर्थ की संस्थापना नहीं हो जाती, तब तक सिद्धों को प्रथम नमस्कार किया जाता है और जब तीर्थ की स्थापना हो जाती है, तब सन्निकट के उपकारी होने से प्रथम अरिहन्त को और उसके पश्चात् सिद्धों को नमस्कार करने की प्रथा प्रारम्भ हुई होगी। प्राचीनतम ग्रन्थों में मंगलाचरण की यह पद्धति प्राप्त होती है। इसका यह अर्थ नहीं कि निश्चित रूप से ऐसा ही क्रम रहा हो। वन्दन का जहाँ तक प्रश्न है, वह साघक की भावना पर अवलम्बित है। तीर्थंकरों के अभाव में तीर्थकर-परम्परा का प्रबल प्रतिनिधित्व करने वाले प्राचार्य और उपाध्याय हैं, अतः वे भी वन्दनीय माने गये और प्राचार्य, उपाध्याय पद के अधिकारी साधु हैं, इसलिए वे भी पांचवें पद में नमस्कार के रूप में स्वीकृत हुए हों। पंचपरमेष्ठीनमस्कार महामंत्र का निर्माण किसने किया? यह प्रश्न सर्वप्रथम आवश्यकनियुक्ति में समपस्थित किया गया है। उत्तर में नियुक्तिकार भद्रबाह ने यह समाधान किया है कि पंचपरमेष्ठीनमस्कार महामंत्र सामायिक का ही एक अंग है। अतः सर्वप्रथम पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार कर सामायिक करना चाहिए। 3 नमस्कारमहामंत्र उतना ही पुराना है, जितना सामायिकसूत्र / सामायिक के अर्थकर्ता तीर्थकर हैं और सूत्रकर्ता गणधर हैं / 4 इसलिए नमस्कारमहामंत्र के भी अर्थकर्ता तीर्थंकर हैं और उसके सूत्रकर्ता गणघर हैं। द्वितीय प्रश्न यह है कि पंचनमस्कार यह आवश्यक का ही एक अंश है या यह अंश दूसरे स्थान स्थापित किया गया है ? इस प्रश्न का उत्तर भी जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में स्पष्ट रूप से दिया है कि प्राचार्य देववाचक ने नन्दीसूत्र में पंचनमस्कार महामंत्र को पृथक श्रुतस्कंध के रूप में नहीं गिना है। 63. कयपंचनमोक्कारो करेइ सामाइयंति सोऽभिहितो / . सामाइयंगमेव य ज सो सेसं अतो वोच्छं। -प्रावश्यकनियुक्ति, गाथा 1027. 64. (क) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1544 (ख) प्रावश्यकनियुक्ति, गाथा 89,90 [22] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org