________________ 4 बन्ध पद-२३ 5-7. संवर, निर्जरा और मोक्ष पद 36 =1 पद शेष पदों में क्वचित् किसी तत्त्व का निरूपण है। जैन दष्टि से सभी तत्त्वों का समन्वय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में किया गया है। अतः प्राचार्य मलयगिरि ने द्रव्य का समावेश प्रथम पद में, क्षेत्र का द्वितीय पद में, काल का चतुर्थ पद में और भाव का शेष पदों में समावेश किया है। प्रज्ञापनाका भगवती विशेषण पांचवें अंग का नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति है और उसका विशेषण 'भगवती' है। प्रज्ञापना को भी 'भगवती' 1 है. जबकि अन्य किसी भी पागम के साथ यह विशेषण नहीं लगाया गया है। यह विशेषण प्रज्ञापना की महत्ता--विशेषता का प्रतीक है। भगवती में प्रज्ञापना सूत्र के एक, दो, पाँच, छह, ग्यारह, पन्द्रह, सत्तरह, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस पदों के अनुसार विषय की पूर्ति करने की सूचना है। यहाँ पर यह ज्ञातव्य है कि प्रज्ञापना उपांग होने पर भी भगवती आदि का सूचन उसमें नहीं किया गया है। इसके विपरीत भगवती में प्रज्ञापना का सूचन है। इसका मूल कारण यह है कि प्रज्ञापना में जिन विषयों की चर्चाएँ की गई है, उन विषयों का उसमें सांगोपांग वर्णन है। महायान बौद्धों में 'प्रज्ञापारमिता' ग्रन्थ का अत्यधिक महत्त्व है। अतः अष्ट साहसिका प्रज्ञापारमिता का भी अपरनाम 'भगवती' मिलता है। 41 प्रज्ञापना के रचयिता प्रज्ञापना के मूल में कहीं पर भी उसके रचयिता के नाम का निर्देश नहीं है। उसके प्रारम्भ में मंगल के पश्चात् दो गाथाएँ हैं। उनकी व्याख्या प्राचार्य हरिभद्र और प्राचार्य मलयगिरि दोनों ने की है। किन्तु वे उन गाथाओं को प्रक्षिप्त मानते हैं। उन गाथाओं में स्पष्ट उल्लेख है ---यह श्यामाचार्य की रचना है। प्राचार्य मलयगिरि ने श्यामाचार्य के लिए 'भगवान' विशेषण का प्रयोग किया।४२ आर्य श्याम वाचक वंश के थे। वे पूर्वश्रुत में निष्णात थे। उन्होंने प्रज्ञापना की रचना में विशिष्ट कला प्रशित की, जिसके कारण अंग और उपांग में उन विषयों की चर्चा के लिए प्रज्ञापना देखने का सूचन किया है। नन्दी-स्थविरावली में सुधर्मा से लेकर क्रमशः प्राचार्यों की परम्परा का उल्लेख है। उसमें ग्यारहवाँ नाम 'वन्दिमो हारियं च सामज्ज' है। हारित गोत्रीय आर्य बलिस्सह के शिष्य प्रार्य स्वाति थे। आर्य स्वाति भी हारित गोत्रीय परिवार के थे। प्राचार्य श्याम प्रार्य स्वाति के शिष्य थे। किन्तु प्रज्ञापना की प्रारम्भिक प्रक्षिप्त गाथा में आर्य श्याम को वाचक वंश का बताया है और माथ ही तेवीसवें पट्ट पर भी बताया है। प्राचार्य मलयगिरि ने भी उनको तेवीसवीं प्राचार्य परम्परा पर माना है। किन्तु 41. शिक्षा समुच्चय, पृ. 104-112, 200 42. (क) भगवान् आर्यश्यामोऽपि इत्थमेव सूत्रं रचयति (टीका, पत्र 72) (ख) भगवान् आर्यश्याम : पठति (टीका, पत्र 47) (ग) सर्वेषामपि प्रावनिकसूरीणां मतानि भगवान् आर्यश्याम उपदिष्टवान् (टीका, पत्र 385) (घ) भगवदार्यश्यामप्रतिपत्तौ (टीका, पत्र-३८५) 43. हारियगोत्तं साई च, वंदिमो हारियं च सामज // 26 (नन्दी स्थविरावली) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org