________________ प्रज्ञापना के भाषापद में 'पन्नवणी' एक भाषा का प्रकार बताया है। उसकी व्याख्या करते हुए प्राचार्य मलयगिरि ने लिखा है-"जिस प्रकार से वस्तु व्यवस्थित हो, उसी प्रकार उसका कथन जिस भाषा के द्वारा किया जाय, वह भाषा 'प्रज्ञापनी' है।३१ प्रज्ञापना का यह सामान्य अर्थ है / तात्पर्य यह है कि जिसमें किसी भी प्रकार के धार्मिक विधि-निषेध का नहीं अपितु सिर्फ वस्तु स्वरूप का ही निरूपण होता है, वह 'प्रज्ञापनी' भाषा है। " प्राचार्य मलयगिरि का यह अभिमत है कि प्रज्ञापना समवाय का उपांग है 33 / पर निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि प्रज्ञापना का सम्बन्ध समवाय के साथ कब जोड़ा गया ? प्रज्ञापना के रचयिता प्राचार्य श्याम का अभिमत है कि उन्होंने प्रज्ञापना को दृष्टिवाद से लिया है 34 / पर हमारे सामने इस समय दृष्टिवाद उपलब्ध नहीं है, अतः स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि प्रज्ञापना में पूर्व साहित्य से कौन सी सामग्री ली है ? तथापि यह निश्चित है कि ज्ञानप्रवाद, आत्मप्रवाद और कर्मप्रवाद के साथ इसके वस्तु निरूपण का मेल बैठता प्रज्ञापना और दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ षट्खण्डागम का विषय प्रायः समान है। प्राचार्य बीरसेन ने अपनी धवला टीका में षट्खण्डागम का सम्बन्ध अग्रायणी पूर्व के साथ जोड़ा है 31 / अतः हम भी प्रज्ञापना का सम्बन्ध अग्रायणी पूर्व के साथ जोड़ सकते हैं। टीकाकार प्राचार्य मलयगिरि की दष्टि से समवायांग में जो वर्णन है, उसी का विस्तार प्रज्ञापना में हमा है। अतः प्रज्ञापना समवायांग का उपांग है। पर स्वयं शास्त्रकार ने इसका सम्बन्ध दृष्टिवाद से बताया है। प्रतः यही मानना उचित प्रतीत होता है कि इसका सम्बन्ध समवायांग की अपेक्षा दृष्टिवाद से अधिक है। किन्तु दृष्टिवाद में मुख्य रूप से दष्टि (दर्शन) का ही वर्णन था। समवायांग में भी मुख्य रूप से जीव, अजीव प्रादि तत्त्वों का निरूपण है और प्रज्ञापना में भी यही निरूपण है, अत: प्रज्ञापना को समवायांग का उपांग मानने में भी किसी प्रकार की बाधा नहीं है। प्रज्ञापना में छत्तीस विषयों का निर्देश है, इसलिए इसके छत्तीस प्रकरण हैं। प्रकरण को इसमें 'पद' नाम दिया है / प्रत्येक प्रकरण के अन्त में प्रतिपाद्य विषय के साथ पद शब्द व्यवहृत हुआ है। आचार्य मलयगिरि पद की व्याख्या करते हुये लिखते हैं-"पदं प्रकरणमर्थाधिकारः इति पर्यायाः" 3deg, अतः यहाँ पद का अर्थ प्रकरण और अधिकार समझना चाहिए। 31. "प्रज्ञापनी-प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी" -प्रज्ञापना, पत्र 249 32. यथावस्थितार्थाभिधानादियं प्रज्ञापनी / / -प्रज्ञापना, पत्र 249 33. इयं च समवायाख्यस्य चतुर्थाङ्गस्योपांगम् तदुक्तार्थप्रतिपादनात् / -प्रज्ञापना टीका पत्र 1 34. अज्झयणमिणं चित्तं सुयरयणं दिट्टिवायणीसंदं / जह वणियं भगवया अहमवि तद वणइस्सामि // ॥मा० 3 // 35. पण्णवणासुत्तं-प्रस्तावना मुनि पुण्यविजयजी, पृ०९ 36. षट्खण्डागम, पु० 1, प्रस्तावना, पृष्ठ 72 37. प्रज्ञापना टीका, पत्र 6 38. सूत्रसमूहः प्रकरणम् / -न्यायवार्तिक, पृ० 1. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org