________________ गौतम की प्रज्ञा को पुन: पुन: साधवाद दिया।४ प्राचार चला में यह स्पष्ट लिखा है-समाधिस्थ श्रमण की प्रज्ञा बढ़ती है। 15 प्राचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपन्नत्ति' ग्रन्थ में 16 श्रमणों की लब्धियों का वर्णन करते हुए एक लब्धि का नाम 'प्रज्ञाश्रमण' दिया है। प्रज्ञाश्रमण लब्धि जिस मुनि को प्राप्त होती है, वह मुनि सम्पूर्ण श्रुत का तलस्पर्शी अध्येता बन जाता है। प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि के पौत्पत्तिकी, पारिणामिकी, वैनयिकी और कर्मजा ये चार प्रकार बताये हैं। मंत्रराज रहस्य में प्रज्ञाश्रमण का वर्णन है।१७ कलिकालसर्वज्ञ प्राचार्य हेमचन्द्र ने प्रज्ञाश्रमण की व्याख्या की है। आचार्य वीरसेन ने प्रज्ञाश्रमण को वन्दन किया है और साथ ही उन्हें जिन भी कहा है। प्राचार्य अकलंक ने भी प्रज्ञाश्रमण का वर्णन किया है / 20 अब चिन्तनीय यह है कि प्रज्ञा शब्द का प्रयोग विभिन्न ग्रन्थों में विभिन्न स्थलों पर हया है। विभिन्न कोशकारों ने प्रज्ञा को ही बुद्धि कहा है। वह बुद्धि का पर्यायवाची माना गया है और एकार्थक भी ! किन्तु गहराई से चिन्तन करने पर सूर्य के प्रकाश की भाँति यह स्पष्ट होता है कि दोनों शब्दों की एकार्थता स्थूल दृष्टि से ही है। कोशकार जिन शब्दों को पर्यायवाची कहता है, वे शब्द वस्तुत: पर्यायवाची नहीं होते / समभिरूढ नय की दृष्टि से कोई भी शब्द पर्यायवाची नहीं है। प्रत्येक शब्द का अपना पृथक अर्थ वाच्य होता है। प्रज्ञा शब्द का भी अपने आप में एक विशिष्ट अर्थ है। बुद्धि शब्द स्थल और भौतिक जगत् से सम्बन्धित है / पर प्रज्ञा शब्द बुद्धि से बहुत ऊपर उठा हुआ है। बहिरंग ज्ञान के अर्थ में बुद्धि शब्द का प्रयोग हुआ है तो अन्तरंग जगत् की बुद्धि प्रज्ञा है / प्रज्ञा प्रतीन्द्रिय जगत का ज्ञान है। वह अान्तरिक चेतना का पालोक है। 'प्रज्ञा' किसी ग्रन्थ के अध्ययन से उपलब्ध नहीं होती। वह तो संयम और साधना से उपलब्ध होती है। प्रज्ञा को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं।-(१) इन्द्रियसंबद्ध प्रज्ञा और (2) इन्द्रियातीत प्रज्ञा / प्राचार्य वीरसेन ने प्रज्ञा और ज्ञान का भेद प्रतिपादित करते हए लिखा है-गुरु के उपदेश से निरपेक्ष ज्ञान की हेतुभूत चैतन्यशक्ति प्रज्ञा है और ज्ञान उसका कार्य है। इससे यह स्पष्ट है कि चेतना का शास्त्रनिरपेक्ष विकास प्रज्ञा है / प्रज्ञा शास्त्रीय ज्ञान से उपलब्ध नहीं होती, अपितु आन्तरिक विकास से उपलब्ध होती है। प्रज्ञा इन्द्रियज्ञान से प्राप्त प्रत्ययों का विवेक करने वाली बुद्धि से परे का ज्ञान है। पातंजलयोग-दर्शन में प्रज्ञा पर विस्तार से चिन्तन करते हए उसकी मर्यादायें तथा उसके क्रमिक विकास की सीमायें बताई हैं। प्रज्ञा की सात भूमिकाएं भी बताई हैं। जितना संयम का विकास होता है, उतनी ही प्रज्ञा निर्मल होती है। संक्षेप में सारांश यह है कि विशिष्ट ज्ञान प्रज्ञा है। प्रज्ञापना में जीव और अजीव का गहराई से निरूपण होने के कारण इस पागम का नाम "प्रज्ञापना" रखा गया है। भगवती' आवश्यक मलयगिरिवृत्ति 22, आवश्यकचूणि२३ महावीरचरियं 24, त्रिषष्टिशलाका 14. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन–२३ गाथा–२८, 34, 39, 44, 49, 54, 59, 64, 69, 74, 79, 85 15. पायारचूला, 26 / 5 / 16. धवला 9 / 4; 1, 188412 17. मंत्रराजरहस्य, श्लोक 522 18. योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्ति; सूरिमंत्रकल्पसमुच्चय भाग 2, पृष्ठ-३६५ 19. षट्खण्डागम, चतुर्थ वेदना खण्ड, धवला 9, लब्धि स्वरूप का वर्णन / 20. तत्त्वार्थराजवातिक, सूत्र 36 21. भगवती 1666 / 570 22. आवश्यक मलयगिरिवत्ति, पृष्ठ-२७० 23. पावश्यकचूणि पृष्ठ-२७५ 24. महावीरचरियं 5 / 155 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org