________________ वर्तमान जैन शासन श्रमण भगवान महावीर से सम्बन्धित है। भगवान महावीर के संघ की संचालनविधि सुव्यवस्थित थी। उनके संघ में ग्यारह गणधर, नौ गण तथा सात व्यवस्थापद थे। संघ की शिक्षा, दीक्षा पादि में सातों पदाधिकारियों का अपूर्व योगदान था। प्राचार्य संघ का संचालन करते थे। उपाध्याय सूत्र की वाचना देते थे। स्थविर श्रमणों को संयम-साधना में स्थिर करते। प्रवर्तक प्राचार्य द्वारा निर्दिष्ट प्रवृत्तियों का संघ में प्रवर्तन करते / गणी लघु श्रमणों के समूह का कुशल नेतृत्व करते। गणधर श्रमणों की दिनचर्या का ध्यान रखते और गणावच्छेदक अन्तरंग व्यवस्था करते। इस तरह सभी शासन की श्रीवृद्धि में जुटे रहते थे। भगवान् महावीर के शासन में अनेक प्रतिभासम्पन्न, तेजस्वी, वर्चस्वी, मनस्वी, यशस्वी श्रमण थे। श्रमण भगवान महावीर ने भव्य जीवों के उदबोधनार्थ अर्थागम प्रदान किया। गणधरों ने अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से उस अर्थागम को गूंथ कर सूत्रागम का रूप दिया। प्राचार्यों ने प्राणोत्सर्ग करके भी उस श्रुत-सम्पदा का संरक्षण किया। गणधरों द्वारा रचित अंगागम-निधि का पालम्बन लेकर उपांगों की रचना हई। उपांगों में चतुर्थ उपांग का नाम "प्रज्ञापना" है / बौद्ध साहित्य में प्रज्ञा के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा है। वहां पर 'पञ' और 'पञ्जा' शब्द अनेक बार व्यवहृत हुए हैं। बौद्ध पाली साहित्य में 'पाती' नामक एक ग्रन्थ भी है जिसमें विविध प्रकार के पुद्गल अर्थात् पुरुष के अनेक प्रकार के भेदों का निरूपण है। उनमें पञति यानी प्रज्ञप्ति और प्रज्ञापना नाम का तात्पर्य एक सदृश है। आचार्य पतंजलि ने "ऋतंभरा प्रज्ञा" तथा "तज्जयात्प्रज्ञालोक: " प्रभृति सूत्रों में प्रज्ञा का उल्लेख किया है / भगवद्गीता में स्थितप्रज्ञ को चर्चा करते हुए "तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता" शब्द का प्रयोग किया है। जैन आगम साहित्य में भी अनेक स्थलों पर 'प्रज्ञा' शब्द प्रयुक्त हुआ है। उदाहरण के रूप में प्राचारांग सूत्र के दूसरे अध्ययन के पच्चीसवें, छब्बीसवें सूत्र में 'प्रज्ञान' शब्द प्राप्त है और अन्य स्थलों पर भी सूत्रकृतांग में श्रमण भगवान् महावीर की संस्तुति करते हुए प्रज्ञ, आशुप्रज्ञ, भूतिप्रज्ञ१०, तथा अन्य स्थलों पर महाप्रज्ञ'' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। भगवान् महावीर को प्रज्ञा का अक्षय सामर कहा है / ' 2 उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के केशीकुमार श्रमण गणधर गौतम से पूछते हैं-- हे मेधाविन् ! हम एक ही उद्देश्य को लेकर प्रवृत्त हुए हैं तो फिर इस (प्राचार) भेद का क्या कारण है। इन दो प्रकार के धर्मों में आपको विप्रत्यय नहीं होता? गौतम ने कहा-धर्म तत्त्व का निर्णय प्रज्ञा से करना चाहिए। 3 केशीकुमार श्रमण ने गणधर 4. (क) भगवतो महावीरस्स नव गणा होत्था। —ठाणं-९।३, सूत्र 680 (ख) प्रायरितेति वा, उवज्झातेति बा, पावतीति वा, थेरेति वा, गणीति वा, गणधरेति वा, गणावच्छेदेति वा ! -ठाण-३१३, सूत्र 177 5. पातंजलयोगदर्शन, समाधिपाद सूत्र 48 6. पातंजलयोगदर्शन, विभूतिपाद, सूत्र 5 7. श्रीमद् भगवद्गीता, अ. 2-57, 58, 61, 68 8. सूत्रकृतांग, प्रज्ञ. 6.4, 15 1178; 1314 / 19; 201666; 206 / 6 9. सूत्रकृतांग, आशुप्रज्ञ 67425; 1152, 111414, 22, 2 / 5 / 1, 2 / 6 / 18 10. सूत्रकृतांग 6 / 1 / 18 11. सूत्रकृतांग, महाप्रज्ञ 1111113, 38 ! 12. सूत्रकृतांग श६८ 13. उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 23, गाथा 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org