________________ परम्परा की दृष्टि से प्राचार्य श्याम की अधिक प्रसिद्धि निगोद-व्याख्याता के रूप में रही है। एक बार भगवान् सीमंधर से महाविदेह क्षेत्र में शकेन्द्र ने सूक्ष्मनिगोद की विशिष्ट व्याख्या सुनी। उन्होंने जिज्ञासा, प्रस्तुत की--क्या भगवन ! भरतक्षेत्र में भी निमोद सम्बन्धी इस प्रकार की व्याख्या करने वाले कोई श्रमण, प्राचार्य और उपाध्याय हैं ? भगवान सोमंधर ने प्राचार्य श्याम का नाम प्रस्तुत किया। वृद्ध ब्राह्मण के रूप में शकेन्द्र आचार्य श्याम के पास आये। प्राचार्य के ज्ञानबल का परीक्षण करने के लिए उन्होंने अपना हाथ उनके सामने किया / हस्तरेखा के आधार पर प्राचार्य श्याम ने देखा-वृद्ध ब्राह्मण की पाबु पल्योपम से भी अधिक है / उनको गम्भीर दृष्टि उन पर उठी और कहा- तुम मानव नहीं, अपितु शकेन्द्र हो। शकेन्द्र को प्राचार्य श्याम के प्रस्तुत उत्तर से संतोष प्राप्त हुप्रा / उन्होंने निगोद के सम्बन्ध में अपनी जिज्ञासा रखी। प्राचार्य श्याम ने निमोद का सूक्ष्म विवेचन और विश्लेषण कर शकेन्द्र को आश्चर्याभिभूत कर दिया। सौधर्मेन्द्र ने कहा-जैसा मैंने भगवान् सीमंधर से निगोद का विवेचन सुना, वैसा ही विवेचन अापके मुखारविन्द से सुनकर मैं अत्यन्त प्रभावित हुमा हूँ / देव की अद्भुत रूपसम्पदा को देखकर कोई शिष्य निदान न कर ले, इस दृष्टि से भिक्षाचर्या में प्रवृत्त मुनिमण्डल के मागमन से पहले ही शक्रेन्द्र श्यामाचार्य की प्रशंसा करता हुआ जाने के लिए उद्यत हो गया। ज्ञान के साथ अहं न पाये, यह असम्भव है। महाबली, विशिष्ट साधक बाहबली और कामविजेता - प्रार्य स्थूलभद्र में भी अहंकार आ गया था, वैसे ही श्यामाचार्य भी अहंकार से ग्रसित हो गये। उन्होंने कहातुम्हारे प्रागमन के बाद मेरे शिष्य बिना किसी सांकेतिक चिह्न के किस प्रकार जान पायेंगे? आचार्यदेव के संकेत से शकेन्द्र ने उपाश्रय का द्वार पूर्वाभिमुख से पश्चिमाभिमुख कर दिया। जब प्राचार्य श्याम के शिष्य भिक्षा लेकर लौटे तो द्वार को विपरीत दिशा में देखकर विस्मित हुए। इन्द्र के प्रागमन की प्रस्तुत घटना प्रभावकचरित में कालकसूरि प्रबन्ध में प्राचार्य कालक के साथ दी है। विशेषावश्यकभाष्य, आवश्यकचूणि प्रभृति ग्रन्थों में आर्य रक्षित के साथ यह घटना दी गई है। परम्परा की दृष्टि से निगोद की व्याख्या करने वाले कालक और श्याम ये दोनों एक ही आचार्य हैं, क्योंकि कालक और श्याम ये दोनों शब्द एकार्थक हैं / परम्परा की दृष्टि से वीरनिर्वाण 335 में वे युगप्रधान प्राचार्य हुए और 376 तक जीवित रहे। यदि प्रज्ञापना उन्हीं कालकाचार्य की रचना है तो बीरनिर्वाण 335 से 376 के मध्य की रचना है। प्राधनिक अनुसंधान से यह सिद्ध है कि नियुक्ति के पश्चात् प्रज्ञापना की रचना हुई है। नन्दीसूत्र में जो प्रागम-सूची दी गई है, उसमें प्रज्ञापना का उल्लेख है। नन्दीसूत्र विक्रम संवत् 523 के पूर्व की रचना है। अत: इसके साथ प्रज्ञापना के उक्त समय का विरोध नहीं / प्रज्ञापना और षट्खण्डागम :एक तुलना प्रागमप्रभाकर पुण्यविजयजी म. एवं पं. दलसुख मालवणिया ने 'पन्नवणासुत्तं' ग्रन्थ की प्रस्तावना में प्रज्ञापनासूत्र और षट्खण्डागम की विस्तृत तुलना दी है। हम यहां उसी का संक्षेप में सारांश अपनी दृष्टि से प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रज्ञापना श्वेताम्बरपरम्परा का आगम है तो षट्खण्डागम दिगम्बरपरम्परा का प्रागम है। प्रज्ञापना के रचयिता दशपूर्वधर श्यामाचार्य हैं तो षट्खण्डागम के रचयिता आचार्य पुष्पदन्त और प्राचार्य भूतबलि हैं। दिगम्बर विद्वान् षट्खण्डामम की रचना का काल विक्रम की प्रथम शताब्दी मानते हैं। यह ग्रन्थ छह खण्डों [17] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org