________________ सुधर्मा से लेकर श्यामाचार्य तक उन्होंने नाम नहीं दिये हैं / पट्टावलियों के अध्ययन से यह भी परिज्ञात होता है कि कालकाचार्य नामके तीन प्राचार्य हए हैं। एक का वीर निर्वाण 376 में स्वर्गवास हुआ था।४४ द्वितीय गर्दभिल्ल को नष्ट करने वाले कालकाचार्य हुए। उनका समय वीरनिर्वाण 453 है।४५ तृतीय कालकाचार्य, जिन्होंने संवत्सरी महापर्व पंचमी के स्थान पर चतुर्थी को मनाया था, उनका समय वीरनिर्वाण 993 है।" इन तीन कालकाचायों में प्रथम कालकाचार्य 'श्यामाचार्य' के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये अपने युग के महावक प्राचार्य थे। उनका जन्म बीरनिर्वाण 280 (विक्रम पूर्व 190) है। संसार से विरक्त होकर वीरनिर्वाण 300 (विक्रम पूर्व 170) में उन्होंने श्रमण दीक्षा स्वीकार की। दीक्षा ग्रहण के समय उनकी अवस्था बीस वर्ष को थी। अपनी महान् योग्यता के आधार पर वीरनिर्वाण 335 (विक्रमपूर्व 135) में उन्हें युग प्रधानाचार्य के पद पर विभूषित किया गया था। इन तीन कालकाचार्यों में प्रथम कालकाचार्य ने, जिन्हें श्याभाचार्य भी कहते हैं, प्रज्ञापना जैसे विशालकाय सूत्र की रचना कर अपने विशद वैदुष्य का परिचय दिया था।४८ अनुयोग की दृष्टि से प्रज्ञापना द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत है। प्रज्ञापना को समग्र श्रमण-संघ ने पागम के रूप में स्वीकार किया। यह प्राचार्य श्याम की निर्मल नीति और हार्दिक विश्वास का द्योतक है। उनका नाम श्याम था पर विशुद्धतम चारित्र की आराधना से वे मत्यन्त समुज्ज्वल पर्याय के धनी थे / पट्टावलियों में उनका तेवीसवां स्थान पट्ट-परम्परा में नहीं है। अन्तिम कालकाचार्य प्रज्ञापना के कर्त्ता नहीं हैं, क्योंकि नन्दीसूत्र, जो वीरनिर्वाण 993 के पहले रचित है, उसमें प्रज्ञापना को आगम-सूची में स्थान दिया है / अतः अब चिन्तन करना है कि प्रथम और द्वितीय कालकाचार्य में से कौन प्रज्ञापना के रचयिता हैं ? डॉ. उमाकान्त का अभिमत है कि यदि दोनों कालकाचार्यों को एक माना जाये तो ग्यारहवें पाट पर जिन श्यामाचार्य का उल्लेख है, वे और गर्दभिल्ल राजा को नष्ट करने वाले कालकाचार्य ये दोनों एक सिद्ध होते हैं। पदावली में जहाँ उन्हें भिन्न-भिन्न गिना है, वहाँ भी एक की तिथि वीर संवत 376 है और दूसरे की तिथि वीर-संवत 453 है / वैसे देखें तो इनमें 77 वर्ष का अन्तर है। इसलिए चाहे जिसने प्रज्ञापना की रचना की हो, प्रथम या द्वितीय अथवा दोनों एक ही हों तो भी विक्रम के पूर्व होने वाले कालकाचार्य (श्यामाचार्य) थे इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है / 44. (क) पाद्याः प्रज्ञापनाकृत् इन्द्रस्य अग्रे निगोद-विचारवक्ता श्यामाचार्यपरनामा / स तु वीरात् 376 वर्षेतिः / - (खरतरगच्छीय पट्टावली) (ख) धर्मसागरीय पट्टावली के अनुसार-एक कालक जो वीरनिर्वाण 376 में मृत्यु को प्राप्त हुए। 45. 'पन्नवणासुतं'–पूण्यविजयजी म., प्रस्तावना पृष्ठ 22 46. (क) पृथ्वीचन्द्र सूरि विरचित कल्पसूत्र टिप्पणक, सूत्र 291 को व्याख्या। (ख) कल्पसूत्र की विविध टीकाएँ। 47. सिरिवीरानो गएसु पणतीसहिएसु तिसय (335) वरिसेसु / पढमो कालगसूरी, जाओ सामज्जनामुत्ति / / 55 / / (रत्नसंचय प्रकरण, पत्रांक 32) 48. निज्जूढा जेण तया पन्नवणा सव्वभावपन्नवणा। तेवीसइमो पुरिसो पवरो सो जयइ सामज्जो // 188 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org