________________ 458] [प्रज्ञापनासूत्र आहारगसरीरे अणिपित्तपमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे ? गोयमा! इडिपत्तपमत्तसंजयसम्मद्दिटिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे, णो अणिडिपत्तपमत्तसंजयसम्मद्दिष्टुिपज्जत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे। [1533-10 प्र.] (भगवन्! ) यदि प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक, संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक गर्भज मनुष्यों के आहारकशरीर होता है तो क्या ऋद्धिप्राप्त-प्रमत्त-संयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तकसंख्यात-वर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भजमनुष्यों के होता है, अथवा अनुद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत्त-सम्यग्दृष्टिपर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज मनुष्यों के होता है ? [उ.] गौतम! ऋद्धि-प्राप्त-प्रमत्तसंयत-सम्यग् दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के आहारकशरीर होता है (किन्तु) अद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तकगर्भज मनुष्यों के नहीं होता / विवेचन --प्राहारकशरीर का अधिकारी प्रस्तुत सूत्र (सू. 1533) के दस भागों में एकविध आहारकशरीर किसको प्राप्त होता है, किसको नहीं ? इसकी चर्चा की गई है। निष्कर्ष-ग्राहारक शरीर एक ही प्रकार का होता है, और वह कर्मभूमि के गर्भज सम्यग्दृष्टि ऋद्धिप्राप्त, प्रमत्तसंयमी मनुष्य को होता है / ' संजत आदि शब्दों के विशेषार्थ--प्रमत्त--जो प्रमाद करते हैं, मोहनीयादि कर्मोदयवश तथा संज्वलन कषाय-निद्रादि में से किसी भी प्रमाद के योग से संयम प्रवृत्तियों (योगों) में कष्ट पाते हैं / वे प्रायः गच्छवासी (स्थविर-कल्पी) होते हैं, क्योंकि वे कहीं-कहीं उपयोगशून्य होते हैं / अपमत्त- इनसे विपरीत जो प्रमादरहित हों, वे प्रायः जिनकल्पी, परिहारविशुद्धिक, यथालन्दकल्पिक एवं प्रतिमाप्रतिपन्न साधु होते हैं। वे सदा उपयोगयुक्त रहते हैं / / एक स्पष्टीकरण-जैनसिद्धान्तानुसार जिनकल्पी आदि लब्धि-उपजीवी नहीं होते। क्योंकि उनका वैसा ही कल्प है / जो गच्छवासी आहारकशरीर का निर्माण करते हैं, वे उस समय लब्ध्युपजीवी एवं उत्सुकता के कारण प्रमत्त होते हैं। प्राहारकशरीर को छोड़ने में भी बे प्रमत्त होते हैं। प्रौदारिक शरीर में प्रात्मप्रदेशों का सर्वात्मना (चारों ओर से) उपसंहरण करने से व्याकुलता पाती है। आहारक शरीर में वह अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं। अतः यद्यपि उसके बीच के काल में थोड़ी देर के लिए जरा-सा विशुद्धिभाव प्राजाता है। कर्मग्रन्थकार इस स्थिति को अप्रमत्तता कहते हैं किन्तु वास्तव में देखा जाए तो लब्धुपजीविता के कारण वे प्रमत्त हैं। इपित्त-ऋद्धिप्राप्त-ग्रामपौषधि इत्यादि ऋद्धियाँ-लब्धियाँ जिन्हें प्राप्त हों।" 1. पण्णवणासुत्तं, (मूलपाठ) 342-343 2. प्रज्ञापना; मलय, वत्ति, पत्र 424-425 3. वही, पत्र 424-425 4. वही, पत्र 424-425 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org