Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 490] [प्रज्ञापनासूत्र [2] एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा। [1583-2 ] इसी प्रकार (पूर्वोक्त सूत्र के कथन के अनुसार) असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमार तक (के प्राणातिपात के अध्यवसाय से होने वाले कर्म-प्रकृतिबन्ध के तीन-तीन भंग समझने चाहिये।) [3] पुढवि-आउ-तेउ-वाउ-वणफइकाइया य, एते सव्वे वि जहा ओहिया जीवा (सु. 1582) / [1583-3] पृथ्वी-अप्-तेजो-वायु-वनस्पतिकायिक जीवों के (प्राणातिपात से होने वाले कर्मप्रकृतिबन्ध) के विषय में (सू. 1582 में उक्त) औधिक (सामान्य-अनेक) जीवों के (कर्मप्रकृतिबन्ध के) समान (कहना चाहिए।) [4] अवसेसा जहा गैरइया / [1583-4] अवशिष्ट समस्त जीवों (वैमानिकों तक के, प्राणातिपात से होने वाले कर्मप्रकृतिबन्ध के विषय में) नैरयिकों के समान (कहना चाहिए।) 1584. [1] एवं एते जोवेगिदियवज्जा तिण्णि तिणि भंगा सम्वत्थ भाणियब्व ति जाव मिच्छादसणसल्लेणं। [1584-1] इस प्रकार समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर (शेष दण्डकों के जीवों के प्रत्येक के) तीन-तीन भंग सर्वत्र कहने चाहिए / तथा (मृषावाद से लेकर) मिथ्यादर्शनशल्य तक (के अध्यवसायों) से (होने वाले कर्मबन्ध का भी कथन करना चाहिए / ) [2] एवं एगत्त-पोहत्तिया छत्तीस दंडगा होति / [1584-2] इस प्रकार एकत्व और पृथक्त्व को लेकर छत्तीस दण्डक होते हैं। विवेचन-प्राणातिपातादि से होने वाले कर्मबन्ध की प्ररूपणा–प्रस्तुत चार सूत्रों (1581 से 1584 तक) में प्राणातिपातादि क्रियाओं के कारणभूत प्राणातिपातादि के अध्यवसाय से होने वाले कर्मप्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा की गई है। सप्तविध बन्ध और अष्टविध बन्ध कब और क्यों ?--एक जीव सप्तविध बन्ध करता है या अष्टविध कर्मबन्ध करता है। इसका कारण यह है कि जब प्रायुष्य कर्म-बन्ध नहीं होता तब सात कर्मप्रकृतियों का और आयुष्यकर्मबन्धकाल में आठ कर्म प्रकृतियों का बन्ध होता है। यह एकत्व की दृष्टि से विचार किया गया है। पृथक्त्व की दृष्टि से विचार करने पर सामान्य बहुत-से जीव या तो सप्तविधबन्धक पाए जाते हैं या अष्टविधबन्धक / ये दोनों जगह सदेव अधिक संख्या में मिलते हैं / नैरयिकसूत्र में सप्तविध बन्धक हैं ही; क्योंकि हिंसादि परिणामों से युक्त नारक सदैव बहुत संख्या में उपलब्ध होते हैं। इसलिए उनके सप्तविध बन्धकत्व में कोई सन्देह नहीं है। जब एक भी आयुष्य बन्धक नहीं होता, तब सभी सप्तविधबन्धक होते हैं। जब एक प्रायुष्कबन्धक होता है, तब शेष सब सप्तविधबन्धक होते हैं / जब अष्टविधबन्धक बहुत-से मिलते हैं, तब दोनों में उभयगत बहुवचन का रूप होता है। अर्थात् अनेक सप्तविधबन्धक और अनेक अष्टविधबन्धक / इस प्रकार तीन भंगों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org