________________ 514] [प्रज्ञापनासूत्र 1645. एवं मुसावायविरयस्स जाव मायामोसविरयस्स जीवस्स य मणूसस्स य / [1645] इसी प्रकार (प्राणातिपातविरत एक जीव और एक मनुष्य के समान) मृषावादविरत यावत् मायामृषाविरत एक जीव तथा एक मनुष्य के भी कर्म प्रकृतिबन्ध का कथन करना चाहिए। 1646. मिच्छादसणसल्लविरए णं भंते ! जीवे कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अढविहबंधए वा छविहबंधए वा एगविहबंधए वा अबंधए वा / [1646 प्र] भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्य-विरत (एक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है ? [उ.] गौतम ! (वह) सप्तविधबन्धक, अष्टविधबन्धक, षड्विधबन्धक, एकविधबन्धक अथवा अबन्धक होता है। 1647. [1] मिच्छादसणसल्लविरए णं भंते ! णेरइए कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए वा, जाव पंचेदियतिरिक्खजोणिए। [1647-1 प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत (एक) नैरथिक कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है ? [उ.] गौतम ! (वह) सप्तविधबन्धक अथवा अष्टविष्धबन्धक होता है; (यह कथन) यावत् पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक तक (समझना चाहिए / ) [2] मणूसे जहा जीवे (सु. 1646) / [1647-2] (एक) मनुष्य के सम्बन्ध में (कर्मप्रकृतिबन्ध का पालापक) (सू. 1646 में उक्त) (सामान्य) जीव के (आलापक के) समान (कहना चाहिए।) [3] वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिए जहा पेरइए। [1647-3] वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक (के सम्बन्ध में कर्मप्रकृतिबन्ध का आलापक) (एक) नैरयिक (के कर्मप्रतिबन्ध सम्बन्धी) (सू. 1647-1 में उक्त (आलायक) के समान कहना चाहिए / ) 1648. मिच्छादसणसल्लविरया णं भंते ! जीवा कति कम्मपगडोओ बंधंति ? गोयमा ! ते चेव सत्तावीसं भंगा भाणियव्वा (सु. 1643) / [1548 प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत (अनेक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [उ.] गौतम ! (सू. 1643 में उक्त) वे (पूर्वोक्त) ही 27 भंग (यहाँ) कहने चाहिए। 1646. [1] मिच्छादसणसल्लविरया गं भंते ! रइया कति कम्मपगडोमो बंधति ? गोयमा! सव्वे वि ताव होज्ज सत्तविहबंधगा 1 अहवा सत्तविहबंधगा य अद्वविहबंधगे य 2 अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य 3 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org