Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ बाईसवाँ क्रियापद] [517 1658. मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते / णेरइयस्स कि आरंभिया किरिया कज्जति जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जई? गोयमा ! आरंभिया वि किरिया कज्जति जाव अपच्चक्खणकिरिया वि कज्जति, मिच्छादसणवत्तिया किरिया णो कज्जइ / [1658 प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्यविरत नैरयिक के क्या प्रारम्भिकी क्रिया होती है, यावत् मिथ्यादर्शन-प्रत्यया क्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! (उसके) आरम्भिकी क्रिया भी होती है यावत् अप्रत्याख्यान-क्रिया भी होती है, (किन्तु) मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया नहीं होती। 1659. एवं जाव थणियकुमारस्स / [1656] इसी प्रकार (मिथ्यादर्शनविरत नैरयिक के क्रिया सम्बन्धी पालापक के समान) (असुरकुमार से लेकर) यावत् स्तनितकुमार तक (के क्रियासम्बन्धी पालापक कहने चाहिए / ) 1660. मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते ! पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स एवमेव पुच्छा। गोयमा ! आरंभिया किरिया कज्जइ जाव मायावत्तिया किरिया कज्जइ, अपच्चक्खाणकिरिया सिय कज्जइ सिय णो कज्जइ, मिच्छादसणवत्तिया किरिया णो कज्जति / [1660 प्र.] इसी प्रकार की पृच्छा मिथ्यादर्शन-शल्यविरत पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक की (क्रियासम्बन्धी है।) [उ.] गौतम ! (उसके) प्रारम्भिकी क्रिया होती है, यावत् मायाप्रत्यया क्रिया होती है / अप्रत्याख्यानक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती, (किन्तु) मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया नहीं होती। 1661. मणूसस्स जहा जीवस्स (सु. 1657) / [1361] (मिथ्यादर्शनशल्यविरत) मनुष्य का क्रियासम्बन्धी प्ररूपण (सू. 1657 में उक्त) (सामान्य) जीव (के क्रिया सम्बन्धी प्ररूपण) के समान (समझना चाहिए / ) . 1662. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा रइयस्स (सु. 1658) / {1662] (मिथ्यादर्शनशल्यविरत) वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का (क्रियासम्बन्धी कथन) (मू. 1658 में उक्त) नैरयिक (के क्रियासम्बन्धी कथन) के समान (समझना चाहिए।) विवेचन-अष्टादशपापस्थान विरत जीवादि में क्रियासम्बन्धी प्ररूपणा--प्रस्तुत 13 सूत्रों (1650 से 1662 तक) में प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य से विरत सामान्य जीव तथा चौबीसदण्डकवर्ती जीवों को लगने वाली प्रारम्भिकी आदि क्रियाओं की प्ररूपणा की गई है। स्पष्टीकरण-प्राणातिपात से लेकर मायामृषा से विरत (औधिक) जीव तथा मनुष्य के प्रारम्भिकी और मायाप्रत्यया क्रिया विकल्प से लगती है, शेष तीन पारिग्रहिकी, अप्रत्याख्यानप्रत्यया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org