Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ बाईसवाँ क्रियापद] [515 [1646-1 प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत (अनेक) नारक कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [उ.] गौतम ! सभी (भंग इस प्रकार) होते हैं-(१) (अनेक) सप्तविध-बन्धक होते हैं, (2) अथवा (अनेक) सप्तविध-बन्धक होते हैं और (एक) अष्टविध-बन्धक होता है, (3) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और अष्टविधबन्धक होते हैं / [2] एवं जाव वेमाणिया / णवरं मणूसाणं जहा (सु. 1648) / [1646-2] इसी प्रकार (नरयिकों के कर्मप्रकृतिबन्ध के पालापक के समान) यावत् (अनेक) वैमानिकों के (कर्मप्रकृतिबन्ध के आलापक कहने चाहिए।) विशेष यह है कि (अनेक) मनुष्यों के (कर्मप्रकृतिसम्बन्धी पालापक) (सू. 1648 में उक्त) (समुच्चय अनेक) जीवों के (कर्मप्रकृति सम्बन्धी पालापक के) समान कहना चाहिए। विवेचन-अठारह पापस्थानविरत जीवों के कर्मप्रकृतिबन्ध का विचार–प्रस्तुत 8 सूत्रों (सू. 1642 से 1646 तक) में एक जीव, अनेक जीव, एक नैरयिक आदि और अनेक नैरयिक आदि की अपेक्षा से कर्मप्रकृतिबन्ध का विचार अनेक भंगों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। अनेक जीवों की अपेक्षा से 27 भंग-कर्मप्रकृतिबन्ध के एक वचन और बहुवचन के कुल 27 भंग होते हैं, वे इस प्रकार हैं--द्विकसंयोगी भंग-१, त्रिकसंयोगी भंग-६, चतुःसंयोगी भंग--१२, और पंचसंयोगी भंग-८ यों कुल मिला कर 27 भंग हुए। ___ मनुष्यों के भी कर्मप्रकृतिबन्ध के इसी प्रकार 27 भंग होते हैं। ये सभी सूत्र क्रियाओं से सम्बन्धित हैं, क्योंकि क्रियाओं से ही कर्मबन्ध होता है।' पापस्थानविरत जीवादि में कियाभेदनिरूपण 1650. पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स कि प्रारंभिया किरिया कज्जति [जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जइ] ? गोयमा ! पाणाइवायविरयस्स जीवस्स आरंभिया किरिया सिय कज्जइ सिय णो कज्जइ। [1650 प्र.] भगवन् ! प्राणातिपात से विरत जीव के क्या प्रारम्भिकी क्रिया होती है ? [यावत् क्या मिथ्यादर्शन-प्रत्यया क्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! प्राणातिपातविरत जीव के आरम्भिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित नहीं होती। 1651. पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स पारिग्गहिया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! णो इण? सम8 / 1. प्रज्ञापना. मलयवत्ति, पत्र 451 2. [जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जइ ?], यह पाठ यहाँ असंगत है, क्योंकि प्रागे 1654 सू. में इसके सम्बन्ध में प्रश्न किया गया है जिसका उत्तर भगवान् ने 'णो इणठे समठे' दिया है, जबकि यहाँ उत्तर है---- 'प्रा. कि. सिय कज्जइ, सिय णो कज्जइ / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org