________________ 518] [प्रज्ञापनासूत्र एवं मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया नहीं लगती, क्योंकि जो जीव या मनुष्य प्राणातिपात से विरत होता है, वह सर्वविरत होता है, इसलिए सम्यक्त्वपूर्वक ही महाव्रत ग्रहण करता है, हिंसादि का प्रत्याख्यान करता है तथा अपरिग्रहमहाव्रत को भी ग्रहण करता है, इसलिए मिथ्यादर्शनप्रत्यया, अप्रत्याख्यानप्रत्यया और पारिग्रहिकी क्रिया उसे नहीं लगती। प्राणातिपातविरत प्रमत्तसंयत के प्रारम्भिकी क्रिया होती है, शेष सर्वविरत को नहीं होती। अप्रमत्तसंयत को मायाप्रत्यया क्रिया कदाचित् प्रवचनमालिन्य के रक्षणार्थ (उस अवसर पर) लगती है, शेष समय में नहीं / उसी मिथ्यादर्शनशल्यविरत जीव को प्रारम्भिकी क्रिया लगती है, जो प्रमत्तसंयत हो, पारिग्रहिकी क्रिया देशविरत तक होती है, आगे नहीं / मायाप्रत्यया भी अनिवृत्तबादरसम्पराय तक होती है, प्रागे नहीं होती / अप्रत्याख्यान क्रिया भी अविरतसम्यग्दृष्टि तक होती है, आगे नहीं / इसलिए मिथ्यादर्शनशल्यविरत के लिए इन क्रियाओं के सम्बन्ध में विकल्पसूचक प्ररूपणा है। मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया मिथ्यादर्शनविरत में सर्वथा असम्भव है। आगे चौवीसदण्डक को लेकर विचार किया गया है। मिथ्यादर्शनविरत नैरयिक से लेकर स्तनितकुमार पर्यन्त चार क्रियाएँ होती हैं, मिथ्यादर्शन प्रत्यया नहीं होती। तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय में प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ नियम से होती है, अप्रत्याख्यानक्रिया विकल्प से होती है, जो देशविरत होता है, उसके नहीं होती, शेष के होती है / मिथ्यादर्शनप्रत्यया नहीं होती। मनुष्य में सामान्य जीव के समान तथा व्यन्तरादि देवों में नारक के समान क्रियाएँ समझनी चाहिए।' प्रारम्भिकी प्रादि क्रियाओं का अल्पबहुत्व 1663. एयासि णं भंते ! आरंभियाणं जाव मिच्छादसणवत्तियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वार 4? गोयमा ! सम्बत्थोवाओ मिच्छादसणवत्तियानो किरियाओ, अप्पच्चक्खाणकिरियानो विसेसाहियाओ, पारिग्गहियाओ विसेसाहियाओ, आरंभियाओ किरियानो विसेसाहियाओ, मायावत्तियाओ विसेसाहियाओ। // पण्णवणाए भगवईए बावीसइमं किरियापयं समत्तं // [1663 प्र.] भगवन् ! इन प्रारम्भिकी से लेकर मिथ्यादर्शनप्रत्यया तक की क्रियाओं में कौन किससे अल्प है, बहुत है, तुल्य है अथवा विशेषाधिक है ? [उ.] गौतम ! सबसे कम मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रियाएँ हैं। (उनसे) अप्रत्याख्यानक्रियाएँ विशेषाधिक हैं। (इनसे)पारिग्रहिकी क्रियाएँ विशेषाधिक हैं / (उनसे) प्रारम्भिकी क्रियाएँ विशेषाधिक हैं, (और इन सबसे) मायाप्रत्ययाक्रियाएँ विशेषाधिक हैं। 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 452 2. 'अप्पा' के ग्रागे अंकित 4 का अंक शेष "बहू बा तुल्ला वा, विसेसाहिया वा" इन तीन पदों का सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org