________________ 504] [प्रज्ञापनासूत्र प्रायोजिता क्रिया: विशेषार्थ जो क्रियाएँ जीव को संसार में प्रायोजित करने-जोड़ने वाली हैं, अर्थात् जो संसारपरिभ्रमण की कारण भूत हैं, वे प्रायोजित क्रियाएँ कहलाती हैं / यद्यपि क्रियाएं साक्षात् कर्मबन्धन की हेतु हैं, किन्तु परम्परा से वे संसार की कारण भी है। क्योंकि ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध संसार का कारण है। इसलिए उरचार से या परम्परा से ये क्रियाएँ भी संसार की कारण कही गई हैं।' जीव में क्रियाओं के स्पृष्ट-अस्पृष्ट की चर्चा 1620. जीवे णं भंते ! जं समयं काइयाए आहिगरणियाए पाओसियाए किरियाए पुतं समयं पारियावणियाए किरियाए पुढे ? पाणाइवायकिरियाए पुट्ठ ? गोयमा ! अत्थेगइए जोवे एगइयाओ जीवाओ जं समयं काइयाए आहिगरणियाए पाओसियाए किरियाए पुढे तं समयं पारियावणियाए किरियाए पुढे पाणाइवायकिरियाए पुट्ठ 1, अत्थेगइए जोवे एगइयाओ जोवाओ जं समयं काइयाए आहिंगरणियाए पादोसियाए किरियाए पुढे तं समयं पारियावणियाए किरियाए पुढे पाणाइवायकिरियाए अपुट्ठ 2, प्रत्येगइए जोवे एगइयाओ जीवाप्रो जं समयं काइयाए आहिगरणियाए पाओसियाए किरियाए पुट्ठ तं समयं पारियावणियाए किरियाए अपुढे पाणाइवायकिरियाए अपुढे 3 / प्रत्येगइए जीवे एगइयाओ जीवाओ जं समयं काइयाए आहिंगरणियाए पाओसियाए किरियाए अपुढे तं समयं पारियावणियाए किरियाए अपुढे पाणाइवायकिरियाए अपु? 4 / 1620] भगवन् ! जिस समय जोब कायिकी, प्राधिकरणिकी और प्रादेषिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, क्या उस समय पारितापनिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, अथवा प्राणातिपातिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है ? उ.] गौतम ! (2) कोई जीव, एक जीव की अपेक्षा से जिस समय कायिको, प्राधिकरशिकी और प्राद्वेषिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, उस समय पारितापनिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है और प्राणातिपात क्रिया से (भी) स्पृष्ट होता है / (2) कोई जीव, एक जीव को अपेक्षा से जिस समय कायिकी, प्राधिकरणको और प्राद्वेपिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, उस समय पारितापनिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, किन्तु प्राणातिपात क्रिया से स्पृष्ट नहीं होता। (3) कोई जोव, एक जीव को अपेक्षा से जिस समय कायिकी, प्राधिकरणि को और प्राद्वेषिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, उस समय पारितापनिकी क्रिया से अस्पृष्ट होता है और प्राणातिपात क्रिया से (भी) अस्पृष्ट होता है, तथा (4) कोई जीव, एक जोव को अपेक्षा से जिस समय कायिकी, प्राधिकारणिको ओर प्राद्वेषिकी क्रिया से अस्पृष्ट होता है, उस समय पारितापनिकी क्रिया से भी अस्पृष्ट होता है और प्राणातिपात क्रिया से भी अस्पृष्ट होता है। विवेचन--क्रियाओं से स्पृष्ट-अपृष्ट की चतुर्भगो--प्रस्तुत में पांच क्रियाओं में से एक जीव में एक ही समय कितनी स्पृष्ट और कितनी अस्पृष्ट होती हैं, इसका विचार किया गया है। 1. प्रज्ञापना. मलयवत्ति, पत्र 445 2. प्रजापना. मलयवृत्ति, पत्र 446 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org