________________ बाईसवाँ क्रियापद] [511 [1636] इसी प्रकार मृषावाद से लेकर यावत् मायाभूषा (पापस्थान) तक से विरमण सामान्य जीवों का और मनुष्य का होता है, शेष (नैरयिक से वैमानिक देवों तक) में यह नहीं होता। विशेष यह है कि अदत्तादान (-विरमण) ग्रहण-धारण करने योग्य द्रव्यों (के विषय) में, मैथुन-विरमण रूपों में अथवा रूपसहगत (स्त्री आदि) द्रव्यों (के विषय) में होता है। शेष पापस्थानों से विरमण सर्वद्रव्यों (के विषय) में होता है। 1640. अस्थि णं भंते ! जीवाणं मिच्छादसणसल्लवेरमणे कज्जति ? हंता! अस्थि / कम्हि णं भंते ! जीवाणं मिच्छादसणसल्लवेरमणे कज्जइ ? गोयमा ! सव्वदब्वेसु / [1640 प्र. भगवन् ! क्या जीवों का मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण होता है ? [उ.] हाँ, होता है। [प्र.] भगवन् ! किस (विषय) में जीवों का मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण होता है ? [3.] गौतम ! (वह) सर्वद्रव्यों (के विषय) में होता है / 1641. एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / णवरं एगिदिय-विलिदियाणं णो इण? समट्ठ। [1641] इसी प्रकार (जीवों के मिथ्यादर्शन-शल्य से विरमण के कथन के समान) नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण का कथन करना चाहिए / विशेष यह है कि एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में यह नहीं होता।। विवेचन अठारह पापस्थानों से विरमण की चर्चा-प्रस्तुत पंचमूत्री में (1637 से 1641 तक में) क्रियाओं के सन्दर्भ में सामान्य जीवों की और चौबीस दण्डकवर्ती जीवों की प्राणातिपात प्रादि 18 पापस्थानों से विरति तथा उनके विषयों की चर्चा की कई है / निष्कर्ष मनुष्य के अतिरिक्त किसी भी जीव में प्राणातिपात आदि 17 पापस्थानों से उसके भवस्वभाव के कारण विरति नहीं हो सकती। समुच्चय जीवों में विरति बताई है, वह मनुष्य की अपेक्षा से बताई है / तथा मिथ्यादर्शनविरमण एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में नहीं हो सकता, यद्यपि किन्हीं द्वीन्द्रियादि को करण को अपर्याप्तावस्था में सास्वादन सम्यक्त्व होता है, तथापि वह मिथ्यात्व के अभिमुख द्वीन्द्रियादि का ही होता है / इसलिए मिथ्यात्व-विरमण' उनमें सम्भव नहीं है / शेष सर्वजोवों में सम्भव है।' इसके अतिरिक्त प्राणातिपातविरमण षट्जीवनिकायों के विषय में, अदत्तादान-विरमण ग्रहण-धारण-योग्य द्रव्यों के विषय में, मैथुन-विरमण रूपों या रूपसहगत द्रव्यों के विषय में होता है / शेष पापस्थानों से विरमण सर्वद्रव्यों के विषय में होता है / पापस्थानविरत जीवों के कर्मप्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा 1642. पाणाइवायविरए णं भंते ! जीवे कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अढविहबंधगे वा छविहबंधए वा एगविहबंधगे वा प्रबंधए वा। एवं मणूसे वि भाणियब्वे / 1. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, पत्र 450 (ख) पण्णवणासुतं, (परिशिप्ट आदि) भा. 2, पृ. 124 2. पण्णवणासुत्त (मूलपाठ-टिपण) भा. 1, पृ. 1 पृ. 359 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org