________________ 510] [प्रज्ञापनासूत्र जिसके प्रारम्भिकी होती है, उसके मायाप्रत्यया नियम से होती है, किन्तु जिसके मायाप्रत्यया होती है, उसके प्रारम्भिकी कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं / जो अप्रमत्तसंयत होता है, उसके नहीं होती, शेष के होती है / तथा जिसके प्रारम्भिकी क्रिया होती है, उसके अप्रत्याख्यानी क्रिया विकल्प से होती है / प्रमत्तसंयत और देशविरत के यह क्रिया नहीं होती, किन्तु जो अविरत सम्यग्दृष्टि आदि हैं, उनके होती है / जिसके अप्रत्याख्यानक्रिया होती है, उसके प्रारम्भिकी क्रिया का होना अवश्यम्भावी है। जिसके प्रारम्भिकी है, उसके मिथ्यादर्शनक्रिया, विकल्प से होती है / अर्थात्मिथ्यादष्टि को होती है, शेष के नहीं होती। जिसके मिथ्यादर्शनक्रिया होती है, उसके प्रारम्भिकी अवश्य होती है, क्योंकि मिथ्यादष्टि अवश्य ही अविरत होता है। पारिग्रहिकी का आगे की तीन क्रियानों के साथ, मायाप्रत्यया का आगे की दो क्रियाओं के साथ, तथा अप्रत्याख्यानक्रिया का एक मिथ्यादर्शनप्रत्यया के साथ सहभाव होता है। पांच स्थावर और तीन विकलेन्द्रियों में पांचों क्रियाएँ होती हैं क्योंकि पृथ्वीकायिकादि में मिथ्यादर्शनप्रत्यया अवश्य होती है। अप्रत्याख्यानक्रिया अविरत सम्यग्दृष्टि के, मिथ्यादर्शनप्रत्यया मिथ्यादृष्टि के और प्रारम्भ की चारों क्रियाएँ देशविरत के होती है।' जीव प्रादि में पापस्थानों से विरति की प्ररूपणा 1637. अस्थि णं भंते जीवाणं पाणाइवायवेरमणे कज्जति ? हंता! अस्थि / कम्हि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवायवेरमणे कज्जति ? गोयमा ! छसु जीवणिकाएसु / [1637 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों का प्राणातिपात से विरमण होता है ? [उ.] हाँ होता है। [प्र.] भगवन् ! किस (विषय) में प्राणातिपात-विरमण होता है ? [उ.गौतम ! (वह) षड् जीवनिकायों (के विषय) में होता है / 1638. [1] अस्थि णं भंते ! रइयाण पाणाइवायवेरमणे कज्जति ? गोयमा ! जो इण8 समहूँ। [1638-1 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिकों का प्राणातिपात से विरमण होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [2] एवं जाव वेमाणियाणं / णवरं मणूसाणं जहा जीवाणं (सु. 1637) / [1638-2] इसी प्रकार का कथन यावत् वैमानिकों तक के प्राणातिपात से विरमण के विषय में समझना चाहिए। विशेष यह है कि मनुष्यों का प्राणातिपातविरमण (सामान्य) जीवों के समान (सू. 1637 के अनुसार) (कहना चाहिए।) 1669. एवं मुसावाएणं जाव मायामोसेणं जीवस्स य मणूसस्स य, सेसाणं णो इण8 समट्ठ। णवरं अदिण्णादाणे गहण-धारणिज्जेसु दम्वेसु, मेहुणे रूवेसु वा रूवसहगएसु वा दब्वेसु, सेसाणं सव्वदम्वेसु। 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 448 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org