Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ माईसवाँ क्रियापद] से बींध देता है, उसके पश्चात् उसका परितापन या मरण होता है. अन्यथा नहीं। अतः इन दोनों का सहभाव नियम से नहीं होता / अर्थात्-पारितापनिकी क्रिया के होने पर भी प्राणातिपातक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती। जब बाण प्रादि के प्रहार से जीव को प्राणरहित कर दिया जाता है तब प्राणातिपातक्रिया होती है. शेष समय में नहीं होती। किन्तु जिसके प्राणातिपातक्रिया होती है, उसके नियम से पारितापनिकी क्रिया होती है, क्योंकि परितापना के बिना प्राणघात असम्भव है।' जीव प्रादि में प्रायोजिता क्रिया की प्ररूपणा-- 1617. कति णं भंते ! आजोजिताओ किरियाओ पण्णत्तानो ? गोयमा ! पंच आजोजिताओ किरियाप्रो पणत्ताओ। तं जहा-काइया जाव पाणाइवायकिरिया। [1617 प्र.] भगवन् ! प्रायोजिता (जीव को संसार में आयोजित करने—जोड़ने वाली) क्रियाएँ कितनी कही गई हैं ? [उ.] गौतम ! आयोजिता क्रियाएँ पांच कही गई हैं। यथा--कायिकी यावत् प्राणातिपातक्रिया। 1618. एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / {1618 | नै रयिकों से लेकर वैमानिकों तक (इन पांचों प्रायोजिता क्रियाओं का) इसी प्रकार (कथन करना चाहिए।) 1619. जस्स गं भंते ! जीवस्स काइया प्राओजिया किरिया अस्थि तस्स आहिकरणिया आओजिया किरिया अस्थि ? जस्स आहिगरणिया आओजिया किरिया अस्थि तस्स काइया आओजिया किरिया अस्थि ? एवं एतेणं अभिलावेणं ते चेव चत्तारि दंडगा भाणियन्वा जस्स 1 जं समयं 2 जे देसं 3 जं पदेसं 4 जाव वेमाणियाणं / [1616 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के कायिकी प्रायोजिता क्रिया होती है, क्या उसके आधिकरणिको प्रायोजिता क्रिया होती है ? (और) जिसके प्राधिकरणिको आयोजिता क्रिया होती है, क्या उसके कायिकी प्रायोजिता क्रिया होती है ? [उ.] इस प्रकार (सू. 1607 से 1616 में उक्त पालापकों के समान यहाँ भी) इस (तथा अन्य) अभिलाप के साथ (1) जिस जीव में, (2) जिस समय में. (3) जिस देश में और (4) जिस प्रदेश में-ये चारों दण्डक यावत वैमानिकों तक कहने चाहिए। विवेचन-आयोजिता क्रियाएँ और उनका सहभाव--प्रस्तुत त्रिसूत्री (1617 से 1616 तक) में पांच प्रायोजिता क्रियाओं का तथा जीव, समय, देश, प्रदेश में उसके परस्पर सहभाव का कथन अतिदेशपूर्वक किया गया है / 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 445 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org