________________ 502] [प्रज्ञापनासूत्र [1615 प्र.] (भगवन् ! ) जिस देश में जीव के कायिकी क्रिया होती है, क्या उस देश में प्राधिकरणिकी क्रिया होती है ? [उ.] (यहाँ भी) उसी (पूक्ति मूत्रों की) तरह यावत् वैमानिक तक (कहना चाहिए / ) 1616. [1] जंपएसं णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कज्जति तं पएस प्राहिगरणिया किरिया कज्जति ? एवं तहेव जाव वेमाणियस्स। [1616-1 प्र. (भगवन् ! ) जिस प्रदेश में जीव के कायिकी क्रिया होती है, क्या उस प्रदेश में प्राधिकरणिकी क्रिया होती है ? [उ.] (गौतम ! ) (यहाँ भी) उसी (पूर्वोक्त सूत्रों की तरह यावत् वैमानिक तक (कहना चाहिए।) [2] एवं एते जस्स 1, जं समयं 2, जं देसं 3, जं पएसं णं 4 चत्तारि दंगा होंति / [1616-2] इस प्रकार (1) जिस जीव के (2) जिम समय में (3) जिस देश में और (4) जिस प्रदेश में ये चार दण्डक होते हैं। विवेचन--क्रियाओं के परस्पर सहभाव की विचारणा–प्रस्तुत 10 सूत्रों (सु. 1607 से 1616 तक) में पूर्वोक्त पांच क्रियाओं के, जीव, समय, देश और प्रदेश की दृष्टि से, परस्पर सहभाव की विचारणा की गई है। निष्कर्ष प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ जीव में नियम से, परस्पर सहभाव के रूप में रहती हैं, किन्तु इन प्रारम्भिक तीन क्रियाओं के साथ आगे की दो क्रियाएँ कदाचित् रहती हैं, कदाचित् नहीं रहतीं / मगर जिस जीव में आगे की दो क्रियाएँ होती हैं, उसमें प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ अवश्य होती हैं / प्राणातिपात और पारितापनिकी क्रिया एक जीव में कदाचित् एक साथ होती हैं, कदाचित नहीं भी होती / सामान्य जीव की तरह चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में इन क्रियाओं के सहभाव के ये ही नियम हैं / जीव में क्रिया-सहभावसम्बन्धी ग्रालापक के समान देश और प्रदेश में क्रिया-सहभाव सम्बन्धी पालायक कहने चाहिए।' कायिकी आदि का परस्पर सहभाव : नियस से या विकल्प से ? --काय एक प्रकार का अधिकरण भी हो जाता है, इसलिए कायिको क्रिया होने पर प्राधिकरणिको अवश्यमेव होती है और प्राधिकरणिकी होने पर कायिकी भी अवश्य होती है। और वह विशिष्ट कायिकी क्रिया प्रद्वेष के विना नहीं होती, इसलिए प्राद्वेषिकी क्रिया के साथ भी कायिकी का अविनाभावसम्बन्ध है / वैसी क्रिया के समय शरीर पर प्रदेष के चिह्न (वक्रता, रूक्षता, कठोरता आदि) स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं / इसलिए कायिकी के साथ प्राद्वेषिकी प्रत्यक्षतः उपलब्ध होती है / 2 प्रारम्भ की तीन क्रियाओं का सहभाव होने पर भो परितापन और प्राणातिपात इन दोनों के सहभाव का कोई नियम नहीं होता; क्योंकि जब कोई घातक बध्य मृगादि को धनुष खींच कर वाणादि 1. पाणवणासुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 355-356 2. प्रज्ञापना. मलयवत्ति, पत्र 444-445 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org