Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ बाईसवाँ क्रियापद] प्राणातिपात के लिए उद्यत हो, उसे देख कर द्वीन्द्रियादि घात्य जीव पर क्रोधादि उत्पन्न होने से मारने के लिए यह शस्त्र शक्तिशाली है, ऐसा चिन्तन करता हुआ अत्यन्त क्रोध आदि का परिणाम करता है, पीड़ा पहुँचाता है, प्राणनाश करता है, तो प्राद्वेषिकी आदि तीनों क्रियाएँ होती हैं।' सौ दण्डक–सामान्यतया जीवपद में एक दण्डक और नैरयिक आदि के 24 दण्डक, ये दोनों मिलाकर 25 दण्डक हुए। फिर एक-एक पद के चार-चार—एक जीव, अनेक जीव, एक नारक अनेक नारक) दण्डक हुए। इस प्रकार 254 4 = 100 दण्डक हुए। चौवीस दण्डकों में क्रियाप्ररूपणा 1605. कति गं भंते! किरियाओ पण्णत्तानो ? गोयमा ! पंच किरियाओ पण्णताओ। तं जहा-काइया जाव पाणाइवायकिरिया / [1605 प्र.] भगवन् ! क्रियाएँ कितनी कही गई हैं ? [उ.] गौतम ! क्रियाएँ पांच कही गई हैं। वे इस प्रकार-कायिको यावत् प्राणातिपातक्रिया। 1606. [1] गैरइयाणं भंते ! कति किरियाओ पण्णत्ताओ? गोयमा! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ। तं जहा-काइया जाव पाणाइवायकिरिया। [1606-1 प्र.] भगवन् ! नारकों के कितनी क्रियाएँ कही गई हैं ? [उ.] गौतम ! (उनके) पांच क्रियाएँ कही गई हैं / यथा-कायिकी यावत् प्राणातिपातक्रिया। [2] एवं जाव वेमाणियाणं / [1606-2] इसी प्रकार (का क्रियासम्बन्धी कथन असुरकुमार से लेकर) यावत् वैमानिकों के (सम्बन्ध में करना चाहिए / ) विवेचन-क्रिया : प्रकार और चौवीस दण्डकव्याप्ति—प्रस्तुत दो सुत्रों (1605-1606) में क्रिया के पूर्वोक्त पांच प्रकार बताकर उनको चौवोस दण्डकवर्ती जीवों में व्याप्ति की प्ररूपणा की जीवादि में क्रियायों के सहभाव की प्ररूपणा 1607. जस्स णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कज्जइ तस्स आहिगरणिया किरिया कज्जति ? जस्स आहिंगरणिया किरिया कज्जति तस्स काइयर किरिया कज्जति ? गोयमा ! जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कज्जति तस्स प्राहिगरणी णियमा कज्जति, जस्स माहिगरणी किरिया कज्जति तस्स वि काइया किरिया णियमा कज्जति / [1607 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है, क्या उसके आधिकरणिकी क्रिया होती है ? (तथा) जिस जीव के प्राधिकरणिकी क्रिया होती है, क्या उसके कायिकी क्रिया होती है ? 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 443 2. वही, पत्र 443 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org