________________ 498] [प्रज्ञापनासूत्र प्रस्तुत सूत्रावली में पूर्वोक्त कायिकी प्रादि पांच क्रियाओं का ही विचार किया गया है। वृत्तिकार के अनुसार यहाँ केवल वर्तमान भव में होने वाली कायिकी आदि क्रियाएँ अभिप्रेत नहीं, किन्तु अतीतजन्म के काय-शरीरादि से अन्य जीवों द्वारा होने वाली क्रियाएँ भी यहाँ अभिप्रेत हैं; क्योंकि अतीत जन्म के शरीरादि का उसके स्वामी ने प्रत्याख्य i) नहीं किया। इसलिए उन शरीरादि में से जो कुछ भी निर्माण हो अथवा उससे शस्त्रादि बनाकर किसी को परितापना दी गई या किसी की हिंसा की गई हो तो अर्थात्-उक्त भूतकाल के शरीरादि से अन्यजीव जो कुछ भी क्रिया करे, उन सब के लिए उस शरीरादि का भूतपूर्व स्वामी जिम्मेदार है, क्योंकि उस जीव ने अपने स्वामित्व के शरीरादि का व्युत्सर्ग (परित्याग) नहीं किया; उसके प्रति, जो ममत्व था, उसका विसर्जन (त्याग) नहीं किया। जब तक उस भूतपूर्व शरीरादि का व्युत्सर्ग जीव नहीं करता, तब तक उससे सम्बन्धित क्रियाएँ लगती रहती हैं। हाँ, अगर पूर्वजन्म के शरीर का ममत्व विसर्जन कर देता है, तो उससे कोई क्रिया नहीं लगती, क्योंकि वह उससे सर्वथा निवृत्त हो चुका है।' व्याख्या-एक जीव की अपेक्षा से एक जीव को जो क्रियाएँ (3, 4 या 5) लगती हैं, वे वर्त. मान जन्म को ले कर लगती हैं / अतीतभव को लेकर कायिकी आदि तीन, चार या पांच क्रियाएँ एक जीव को इस प्रकार लगती हैं- कायिकी तब लगती है, जब उसके पूर्वजन्म से सम्बन्धित अविजित शरीर या शरीर के एक देश का प्रयोग किया जाता है / प्राधिकरणिकी तब लगती है, जब उसके पूर्व जन्म के शरीर से संयोजित हल, मूसल, खड्ग आदि अधिकरणों का दूसरों के घात के लिए उपयोग किया जाता है। प्राद्वेषिकी तब लगती है, जब पूर्वजन्मगत शरीरादि का ममत्व विसर्जन (प्रत्याख्यान) न किया हो, और तद्विषयक बुरे परिणाम में कोई प्रवृत्त हो रहा हो / पारितापनिकी तब होती है, जब अव्युत्सृष्ट काया से या काया के एकदेश से कोई व्यक्ति दूसरों को परिताप (संताप) दे रहा हो। और प्राणातिपातक्रिया तब होती है, जब उस अव्युत्सृष्ट काय से दूसरे का घात कर दिया जाए। अक्रिय तब होता है, जब कोई व्यक्ति पूर्वजन्म के शरीर या शरीर से सम्बद्ध साधन का तीन करण तीन योग से व्युत्सर्ग कर देता है। तब उस जन्मभावी शरीर से कछ भी क्रिया नहीं करता या की जाती। यह अक्रियता मनुष्य की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि मनुष्य ही सर्वविरत हो सकता है। देवों और नारकों के जीवन का घात असम्भव है, क्योंकि देव और नारक अनपवर्त्य (निरुपक्रम) आयुवाले होते हैं / उनकी अकाल मृत्यु कदापि नहीं होती / अतएव उनके विषय में पचम क्रिया नहीं हो सकती 2 द्वीन्द्रियादि की अपेक्षा से नारक को कायिकी आदि क्रियाएँ-जिस नारक ने पूर्व भव के शरोर का जब तक विसर्जन नहीं किया, उस नारक का श रोर तब तक पूर्वभाव प्रज्ञापना से, रिक्त घी के घड़े की तरह 'उसका' कहलाता है। उस शरीर के हड्डी आदि एक देश से भी कोई दूसरा किसी का प्राणातिपात (घात) करता है तो पूर्व जन्मगत उस शरीर का स्वामी जीव भी कायिकी आदि क्रियाओं से संलग्न हो जाता है, क्योंकि उसने उस शरीर का व्युत्सर्ग नहीं किया था। जब उसी जीव के शरीर के एकदेश को अभिघात (प्रहार) आदि में समर्थ जान कर कोई व्यक्ति (ख) पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. 2 पृ. 123 1. (क) प्रज्ञापनाां मलयवृत्ति, पत्र 442 2. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 442 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org