Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ बाईसवाँ क्रियापद] [499 यथा--प्रचौर को तू चोर है' कहना / पैशुन्य-किसी के परोक्ष में झूठे या सच्चे दोष प्रकट करना, चुगली खाना / परपरिवाद–अनेक लोगों के समक्ष दूसरे के दोषों का कथन करना / माया-मषा--- मायासहित झठ बोलना। यह महाकर्मबन्ध का हेत है। मिथ्यादर्शनशल्य-मिथ्यात्वरूप तीक्ष्ण कांटा। अठारह पापस्थानकों में 5 महाव्रतों के अविरति रूप पांच पापस्थानक हैं / शेष पापस्थानों का इन्हीं पांचों में समावेश हो जाता है।' प्रहारस एए दंडगा-ये (पूर्वोक्त पदों में उल्लिखित) दण्डक (पालापक) अठारह हैं / 'प्राणातिपातादि पापस्थान 18 होने से अठारह पापस्थानों को ले कर जोवों को क्रिया और उसके विषयों का यहाँ निर्देश किया गया है। क्रियाहेतुक कर्मप्रकृतिबन्ध को प्ररूपणा 1581. [1] जीवे णं भंते ! पाणाइदाएणं कति कम्मपगडोमो बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा प्रविहबंधए वा / [1581-1 प्र.] भगवन् ! (एक) जीव (प्राणातिपातक्रिया के कारणभूत) प्राणातिपात (के अध्यवसाय) से कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधता है ? [उ.] गौतम ! सात अथवा पाठ कर्मप्रकृतियाँ बाँधता है। [2] एवं गैरइए जाव णिरंतरं वेमाणिए / [1581-2] इसी प्रकार (सामान्य जीव के प्राणातिपात से बंधने वालो कर्मप्रकृतियों के पण के समान) एक नैरयिक से ले कर लगातार एक वैमानिक देव तक के (प्राणातिपात के अध्यवसाय से होने वाली कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का कथन करना चाहिए।) 1582. जीवा णं भंते ! पाणाइवाएणं कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा! सत्तविहबंधगा वि अट्ठविहबंधगा वि / [1882 प्र.) भगवन् ! (अनेक) जीव प्राणातिपात से कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [उ.] गौतम ! वे सप्तविध (कर्मप्रकृतियाँ) बांधते हैं या अष्टविध (कर्मप्रकृतियाँ) वांधते हैं। 1583. [1] रइया णं भंते ! पाणाइवाएणं कति कम्मपगडीओ बंधंति ? गोयमा ! सम्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा, अहवा सत्तविहबंधगा य प्रविहबंधगे य, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य / {1583-1 प्र. भगवन् ! (अनेक) नारक प्राणातिपात से कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [उ.] गौतम ! वे सब नारक सप्तविध (कर्मप्रकृतियाँ) बांधते हैं अथवा (अनेक नारक) सप्तविध (कर्मप्रकृतियों के) बन्धक होते हैं और (एक नारक) अष्टविध (कर्म-) बन्धक होता है, अथवा (अनेक नारक) सप्तविध कर्मबन्धक होते हैं और (अनेक) अष्टविध कर्मबन्धक भी ! 1. प्रजापना. मलयवृत्ति, पत्र 838 2. वही मलयवृत्ति, पत्र 838 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org