Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ बाईसवां क्रियापद] [493 सोलह दण्डक-ज्ञानावरणीय आदि पाठ कर्मो (कर्मप्रकृतियों) के बन्ध को लेकर प्रत्येक कर्म के आश्रयी एकत्व और पृथक्त्व के भेद से दो-दो दण्डक कहने चाहिए। इस प्रकार सब दण्डकों की संख्या 16 होती हैं।' जीवादि में एकत्व और पृथक्त्व से क्रियाप्ररूपरणा 1588. जीवे णं भंते ! जीवातो कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए सिय अकिरिए। [1588 प्र.] भगवन् ! (एक) जीव, (एक) जीव की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है [उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला, कदाचित् पांच क्रियाओं वाला और कदाचित् अक्रिय (क्रियारहित) होता है / 1589. [1] जीवे णं भंते ! रइयाओ कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चतुकिरिए सिय प्रकिरिए / [1589-1 प्र.] भगवन् ! (एक) जीव, (एक) नारक की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? [उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियानों वाला और कदाचित् अक्रिय होता है। [2] एवं जाव थणियकुमाराओ। [1586-2] इस प्रकार (पूर्वोक्त एक जीव की एक नारक की अपेक्षा से क्रिया सम्बन्धी आलापक के समान) (एक जीव की, एक असुरकुमार से ले कर) यावत् (एक) स्तनितकुमार को की अपेक्षा से (क्रिया सम्बन्धी पालापक कहने चाहिए / ) [3] पुढविक्काइय-आउक्काइय-तेउक्काइय-वाउक्काइय-वणफइकाइय-बेइंदिय-तेइंदिय-च उरिदिय-पंचिदियतिरिक्खजोणिय-मणूसातो जहा जीवातो (सु. 1588) / [1589-3] (एक जीव का) (एक) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक एवं एक मनुष्य की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी पालापक) (सू. 1588 में उक्त) एक जीव को अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी प्रालापक) के समान (कहने चाहिए।) [4] वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाओ जहा पेरइयायो (सु. 1589) [1589-4] (इसी तरह एक जीव का) (एक) वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक की अपेक्षा से, क्रियासम्बन्धो पालापक) (सू. 1589-1 में उक्त) (एक) नैरपिक की अपेक्षा से क्रियासम्बन्धी आलापक) के समान कहने चाहिए। 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति पत्र 441 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org