________________ बाईसवाँ क्रियापक [491 असुरकुमार आदि दस प्रकार के भवनपति तक का कथन करना चाहिए। पृथ्वीकायिकादि पांच स्थावर प्रायः हिंसा के परिणामों में परिणत होते हैं, इसलिए सदैव अनेक पाए जाते हैं तथा वे सप्तविधबन्धक या अष्टविधबन्धक होते हैं। शेष द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय, मनुष्य, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानियकों का कथन भंगत्रिक के साथ नैरयिकों की तरह करना चाहिए।' एगत्तपोहत्तिया छत्तीस दंडगा--प्राणातिपात से मिथ्यादर्शन शल्य तक 18 पापस्थानकों के एकत्व और पृथक्त्व के भेद से प्रत्येक के दो-दो दण्डक होने से 18 ही पापस्थानकों के कुल 36 दण्डक होते हैं। जीवादि के कर्मबन्ध को लेकर क्रियाप्ररूपणा 1585. [1] जोवे गं भंते ! गाणावरणिज्जं कम्मं बंधमाणे कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए। [1585-1 प्र.] भगवन् ! (एक जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता हुआ (कायिकी आदि पांच क्रियानों में से) कितनी क्रियाओं वाला होता है ? [उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला और कदाचित् पांच क्रियाओं वाला होता है। [2] एवं परइए जाव वेमाणिए / [1585-2] इसी प्रकार एक नै रयिक से लेकर यावत् (एक) वैमानिक (तक के पालापक कहने चाहिए !) 1486. [1] जीवाणं भंते ! पाणावरणिज्ज कम्मं बंधमाणा कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि। [1586-1 प्र.] भगवन् ! (अनेक) जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हुए, कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) कदाचित् तीन क्रियाओं वाले, कदाचित् चार क्रियानों वाले और कदाचित् पांच क्रियाओं वाले भी होते हैं / [2] एवं रइया निरंतरं जाव वेमाणिया। [1586-2] इस प्रकार (सामान्य अनेक जीवों के आलापक के समान) नैरयिकों से (लेकर) लगातार वैमानिकों तक (के आलापक कहने चाहिए / ) 1587. [1] एवं दरिसणावरणिज्ज बेयणिज्ज मोहणिज्ज आउयं णाम गोयं अंतराइयं च अट्ठबिहकम्मपगडीयो भाणियवाओ। 1. प्रज्ञापना मलयवृत्ति पत्र 440 2. बही, पत्र 440 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org