________________ 492] [प्रज्ञापनासून [1587-1] इस प्रकार (जानावरणीय कर्म के समान) दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, प्रायुष्य, नाम, गोत्र और अन्तरायिक, इन आठों प्रकार की कर्मप्रकृतियों को (बांधता हुआ एक जीय या एक नैरयिक से यावत् वैमानिक, अथवा बांधते हुए अनेक जीवों या अनेक नैरयिकों से यावत् वैमानिकों को लगने वाली क्रियाओं के पालापक कहने चाहिए।) [2] एगत्त-पोहत्तिया सोलस दंडगा। [1587-2] एकत्व और पृथक्त्व के (प्राश्रयी कुल) सोलह दण्डक होते हैं / विवेचन--अष्टविध कर्मबन्धाश्रित क्रियाप्ररूपणा-प्रस्तुत त्रिसूत्री (सू. 1585 से 1587 तक ) में जीवों के द्वारा प्राणातिपातादि के कारण ज्ञानावरणीयादि कर्म बांधते हुए क्रियाओं के लगने की संख्या की प्ररूपणा की गई है। प्रस्तुत प्रश्न का आशय-इसी पद में पहले कहा गया था कि जीव प्राणातिपात आदि पाप के अध्यवसाय से सात या आठ कर्मों को बांधता है। प्रस्तुत में यह बताया गया है कि वह ज्ञानावरणीयादि कर्म बांधता हुआ कायिकी आदि कितनी क्रियानों से प्राणातिपात को समाप्त करता है ? तथा यहाँ ज्ञानावरणीय नामक कर्मरूप कार्य से प्राणातिपात नामक कारण का निवृत्तिभेद भी बताया गया है। उस भेद से बन्धविशेष भी प्रकट किया गया है / ' कहा भी है-"तीन, चार या पांच क्रियानों से क्रमशः हिसा समाप्त (पूर्ण) की जाती है, किन्तु यदि योग और प्रद्वेष का साम्य हो तो इसका विशिष्ट बन्ध होता है / उत्तर का आशय---उसी प्राणातिपात का निवृत्तिभेद बताते हुए उत्तर में कहा गया हैकदाचित् वह तीन क्रियाओं वाला होता है, इत्यादि। जब तीन क्रियाओं वाला होता है, तब कायिकी प्राधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी क्रियाओं से प्राणातिपात को समाप्त करता है। कायिकी से हाथ पैर आदि का प्रयोग (प्रवृत्ति या व्यापार) करता है, प्राधिकरणिकी से तलवार आदि को जुटाता है या तेज या ठीक करता है, तथा प्राद्वेषिकी से 'उसे मारू' इस प्रकार का मन में अशुभ सम्प्रधारण (विचार) करता है / जब वह चार क्रियाओं से युक्त होता है, तब कायिकी, ग्राधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी क्रियाओं के उपरान्त चौथी 'पारितापनिकी' क्रिया से युक्त भी हो जाता है, अर्थात्-खङ्ग आदि के प्रहार (धात) से पीडा पहुँचा कर पारितापनिकी क्रिया से भी युक्त हो जाता है। जब वह पांच क्रियाओं से युक्त होता है, तब पूर्वोक्त चार क्रियाओं के अतिरिक्त पांचवीं प्राणातिपातिकी क्रिया से भी युक्त हो जाता है। अर्थात् उसे जीवन से रहित करके प्राणातिपातक्रिया वाला भी हो जाता है।' 'तिकिरिए' आदि पदों का आशय-जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हुए सदेव बहुत-से होते हैं, इस कारण तीन क्रियाओं वाले भी होते हैं, चार क्रियाओं वाले भी और पांच क्रियाओं वाले भी होते हैं। इस प्रकार एक जीव, एक नैरयिकादि, तथा अनेक जीव या अनेक नैरयिकादि चौवीस दण्डकवर्ती जीवों को लेकर क्रियाओं की चर्चा की गई है। 1. प्रजापना. मलयवृत्ति, पत्र 440 2. तिसृभिश्चतसृभिरय पञ्चभिश्च (क्रियाभिः) हिंसा समाध्यते क्रमशः / बन्धोऽस्य विशिष्टः स्याद, योग प्रतषसाम्यं चेत् ॥-प्रज्ञापना. मलयवत्ति, 5.440 3. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति पत्र 440 4. वही, मलयवृत्ति, पत्र 441 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org