________________ 488] [प्रज्ञापनासूत्र सूत्रों (1574 से 1580 तक) में प्राणातिपात से ले कर मिथ्यादर्शनशल्य तक के अध्यवसाय से समुच्चय जीवों तथा चौवीस दण्डकवी जीवों को लगने वाली इन क्रियाओं तथा इन क्रियाओं के पृथक पृथक विषयों की प्ररूपणा की गई है। प्राणातिपातक्रिया : कारण और विषय-सूत्र 1574 गत प्रश्न का आशय यह है-जीवों के, प्राणातिपात से, अर्थात् प्राणातिपात के अध्यवसाय से प्राणातिपात क्रिया की जाती है, अर्थात्होती है / इसका फलितार्थ यह है कि प्राणातिपात (हिसा) की परिणति (अध्यवसाय--परिणाम) के काल में ही प्राणातिपात क्रिया हो जाती है यह कथन ऋजुसूत्रनय को दृष्टि से किया गया है / प्रत्येक क्रिया अध्यवसाय के अनुसार ही होती है। क्योंकि पूण्य और पापकर्म का उपादान-अनुपादान अध्यवसाय पर ही निर्भर है। इसीलिए भगवान् ने भी इन सब प्रश्नों का उत्तर ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से दिया है कि प्राणातिपात के अध्यवसाय से प्राणातिपातक्रिया होती है। इसी प्रकार का आगमवचन है--"परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंबमाणाणं" इसी वचन के आधार पर आवश्यकसूत्र में भी कहा गया है-आया चेव अहिंसा, प्राया हिंसत्ति निच्छओ एस' (आत्मा ही अहिंसा है आत्मा ही हिंसा है, इस प्रकार का यह निश्चय नय का कथन है।) निष्कर्ष यह है कि प्रणातिपात क्रिया प्राणातिपात के अध्यवसाय से होती है। इसी प्रकार शेष 17 पापस्थानकों के अध्यवसाय से मृषावादादि क्रियाएँ होती हैं, यह समझ लेना चाहिए / प्रस्तुत सूत्र के अन्तर्गत दूसरा प्रश्न है—वह प्राणातिपातक्रिया किस विषय में होती है ? अर्थात्--प्राणातिपात क्रिया का कारणभूत अध्यवसाय किसके विषय में होता है ? उत्तर में प्राणातिपात क्रिया के कारणभूत अध्यक्साय का विषय षट्जीवनिकाय बताया गया है / क्योंकि मारने का अध्यवसाय जीवविषयक होता है, अजीवविषयक नहीं। रस्सी आदि में सादि की बुद्धि से जो मारने का अध्यवसाय होता है, वह भी 'यह सांप है' इस बुद्धि से प्रवृत्ति होने से जीवविषयक ही है। इसीलिए कहा गया कि प्राणातिपातक्रिया षट्जीवनिकायों में होती है / इसी प्रकार मृषावाद आदि शेष 17 पापस्थानों के अध्यवसाय से होने वाली मृषावादादि क्रिया विभिन्न विषयों को ले कर होती है, यह मूल पाठ से ही समझ लेना चाहिए।' मषावाद : स्वरूप और विषय-सत् का अपलाप और असत् का प्ररूपण करना मृषावाद है। मृषावाद का अध्यवसाय लोकगत और अलोकगत समस्त-वस्तु-विषयक होना सम्भव है / इसलिए कहा गया है.---'सब्वदन्वेसु सर्वद्रव्यों के विषय में मृषावाद क्रिया का कारणभूत अध्यवसाय होता है। द्रव्य ग्रहण के उपलक्षण से 'सर्वपर्यायों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। अदत्तादान आदि क्रिया के विषय--अदत्तादान उसी वस्तु का हो सकता है, जो वस्तु ग्रहण या धारण की जा सकती है। इसलिए अदत्तादानक्रिया अन्य वस्तुविषयक नहीं होती, अतः कहा गया हैगहणधारणिज्जेसु दव्वेसु।' मैथुनक्रिया का कारणभूत मैथुनाध्यवसाय भी चित्र, काष्ठ,भित्ति, मूर्ति,पुतला आदि के रूपों या रूपसहगत स्त्री आदि विषयों में होता है / परिग्रह का अर्थ है-स्वत्व या स्वामित्व भाव से मूर्छा / वह प्राणियों के अन्तर में स्थित लोभवश समस्तवस्तुविषयक हो सकती है / इसीलिए कहा गया है--सव्वदम्वेसु / ' अभ्याख्यानादि के अर्थ एवं विषय-अभ्याख्यान-असद् दोषारोपण; 1. प्रज्ञापना. मलप्रवृत्ति, पत्र 437-438 2. वही, मलयवृत्ति, पत्र 438 3. वहीं, मलयवत्ति, पत्र 438 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org