________________ 480] [प्रज्ञापनासूत्र क्रियाएँ ही ध्यान में रखी हैं / परन्तु वृत्तिकार ने स्पष्टीकरण किया है कि इन प्रश्नों का प्राशय यह है कि जीव जब प्राणातिपात द्वारा कर्म बाँधता हो, तब उस प्राणातिपात की समाप्ति कितनी क्रियानों से होती है। वृत्तिकार ने यह भी स्पष्ट किया है कि कायिकी आदि क्रम से तीन, चार या पांच क्रियाएँ समझनी चाहिए।' तत्पश्चात् एक जीव, एक या अनेक जीवों की अपेक्षा से तथा अनेक जीव, एक या अनेक जीवों की अपेक्षा से कायिको आदि क्रियाओं में से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? दूसरे जीव को अपेक्षा से कायिकी आदि क्रियाएँ कैसे लग जाती हैं. इसका स्पष्टीकरण वृत्तिकार यों करते हैं कि केवल वर्तमान जन्म में होने वाली कायिकी प्रादि क्रियाएँ यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं, किन्तु अतीत जन्म के शरीरादि से अन्य जीवों द्वारा होने वाली क्रिया भी यहाँ विवक्षित है, क्योंकि जिस जीव ने भूतकालीन काया अादि की विरति नहीं स्वीकारी, अथवा शरीरादि का प्रत्याख्यान (व्युत्सर्ग या ममत्वत्याग) नहीं किया, उस शरीरादि से जो कुछ निर्माण होगा या उसके द्वारा अन्य जीव जो कुछ क्रिया करेंगे, उसके लिए वह जिम्मेवार होगा, क्योंकि उसने शरीरादि का ममत्व त्याग नहीं किया / * इसके बाद चौबीसदण्डकवर्ती जीवों में पांचों क्रियाओं की प्राप्ति बताई है। इसके पश्चात 24 दण्डकों में कायिकी आदि पांचों क्रियानों के सहभाव की चर्चा की गई है। साथ ही कायिकी आदि पांचों क्रियाओं को प्रायोजिका (संसारचक्र में जोड़ने वाली) के रूप में बताकर इनके सहभाव की चर्चा की गई है। * इसके पश्चात् एक जीव में एक जीव की अपेक्षा से पांचों क्रियाओं में से स्पृष्ट-अस्पृष्ट रहने की चर्चा की गई है। * इसके अनन्तर क्रियानों के प्रकारान्तर से प्रारम्भिकी आदि 5 भेद बताकर किस जीव में कौन-सी क्रिया पाई जाती है ? इसका उल्लेख किया है। इसके पश्चात् चौवीसदण्डकों में इन्हीं क्रियानों की प्ररूपणा की गई है। फिर जीवों में इन्हीं पांच क्रियाओं के सहभाव की चर्चा की गई है / अन्त में समय, देश-प्रदेश को लेकर भी इनके सहभाव की चर्चा की गई है। * इसके पश्चात् प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक 18 पापस्थानों से कौन-सा जीव विरत हो सकता है ? तथा पाणातिपातादि से विरमण किस विषय में होता है ? इत्यादि विचारणा की गई है। 1. पण्णवणामुत्तं मूलपाठटिप्पण, पृ. 351-352 2. वही, पृ. 353-354 3. वही, पृ. 355-356 4, वही, पृ. 356-357 5. वही, पृ. 357, 358, 359 6. वही, पृ. 359 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org