________________ 478] [प्रज्ञापनासूत्र धात से समवहत जीव जब पूर्वशरीर से बाहर निकले हुए तैजसशरीर की अवगाहना की आयाम(ऊँचाई), बाहल्य (मोटाई) और विस्तार (चौड़ाई) से विचारणा की जाती है, ऐसी स्थिति में जिस प्रदेश में वे जीव उत्पन्न होंगे वह प्रदेश, औदारिकशरीर को अवगाहना से प्रमित अगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण, व्याप्त होता है और अतीव अल्प बीच का प्रदेश भी व्याप्त होता है / इसलिए प्रौदारिक की जघन्य अवगाहना से तैजस-कार्मण शरीर की जघन्य अवगाहना विशेषाधिक हुई। आहारक शरीर की जघन्य अवगाहना देशोन हस्तप्रमाण और उत्कृष्ट अवगाहना भी एक हाथ की है / उससे औदा. शरीर की उत्कृष्टावगाहना संख्यातगुणी है, क्योंकि वह सातिरेक सहस्रयोजन प्रमाण है। वैक्रियशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना सातिरेक लक्षयोजन होने से वह इससे संख्यातगुणी अधिक है / तैजसकार्मण शरीर की उ. अवगाहना समान होने पर भी वैक्रिय शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना से असंख्यातगुणी अधिक है, क्योंकि वह 14 रज्जूप्रमाण है / शेष स्पष्ट है / ' // प्रज्ञापना भगवती का इक्कीसवाँ अवगहनासंस्थानपद सम्पूर्ण // 48. प्रज्ञापना. मलयवत्ति, पत्र 434-435 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org