Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ बाईसा क्रियापर] [483 गोयमा ! तिधिहा पण्णत्ता / तं जहा-जेणं अपणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा असायं वेदणं उदीरेति / से तं पारियावणिया किरिया / {1571 प्र.] भगवन् ! पारितापनिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? [उ.] मौतम ! (वह) तीन प्रकार की कही गई है / जैसे कि-जिस प्रकार से स्व के लिए, पर के लिए या स्व-पर दोनों के लिए असाता (दुःखरूप) वेदना उत्पन्न की जाती है, वह है-(विविध) पारितापनिकी क्रिया / 1572. पाणातिवातकिरिया णं भंते ! कतिविहा पण्णता ? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता / तं नहा-जेणं अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा जीवियानो ववरोवेइ / से तं पाणाइवायकिरिया। [1572 प्र.] भगवन् ! प्राणातिपात-क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? _[उ.] गौतम! (वह) तीन प्रकार की कही गई है। यथा-(ऐसी क्रिया) जिससे स्वयं को, दुसरे को, अथवा स्व-पर दोनों को जीवन से रहित कर दिया जाता है, वह (त्रिविध) प्राणातिपातक्रिया है। विवेचन-हिंसा की वृष्टि से क्रियाओं के भेद-प्रभेद --प्रस्तुत 6 सूत्रों (1567 से 1572 तक) में क्रियाओं के मूल 5 भेद और उनके उत्तरभेदों का निरूपण हिंसा-अहिंसा की दृष्टि से किया गया है। क्रियाओं का विशेषार्थ-क्रिया : दो अर्थ-(१) करना, (2) कर्मबन्धकी कारणभूत चेष्टा / कायिकी-काया से निष्पन्न होने वाली। माधिकरणिको-जिससे प्रात्मा नरकादि दुर्गतियों में अधिकृत--स्थापित की जाए, वह अधिकरण---एक प्रकार का दूषित अनुष्ठानविशेष / अथवा तलवार चक्र प्रादि बाह्य हिंसक उपकरण / अधिकरण से निष्पन्न होने वाली क्रिया प्राधिकरणिकी / प्राषिको-प्रद्वेष -यानी मत्सर, कर्मबन्ध का कारण जीव का अकुशल परिणाम-विशेष / प्रद्वेष से होने वाली प्राद्वेषिकी / पारितापनिकी-परितापना अर्थात्-पीड़ा देना / परितापना से या परितापना में होने वाली क्रिया / प्राणातिपातिकी-इन्द्रियादि 10 प्राणों में से किसी प्राण का अतिपात-विनाशप्राणातिपात / प्राणातिपात-विषयक क्रिया। अनपरतकायिकी-देशतः या सर्वतः विरत हो वह उपरत / जो उपरत-विरत न हो, वह अनुपरत / अर्थात् काया से प्राणातिपातादि से देशतः या सर्वतः विरत-निवृत्त न होना अनुपरतकायिकी। यह क्रिया अविरत को लगती है / दुष्प्रयुक्तकायिकीकाया आदि का दुष्ट प्रयोग करना / यह क्रिया प्रमत्त संयत को लगती है, क्योंकि प्रमत्त होने पर काया का दुष्प्रयोग सम्भव है / संयोजनाधिकरणिकी-पूर्व निष्पादित हल, मूसल, शस्त्र, विष प्रादि हिंसा के कारणभूत उपकरणों का संयोग मिलाना संयोजना है। वही संसार की कारणभूत होने से संयोजनाधिकरणिकी है। यह क्रिया पूर्व निर्मित हलादि हिंसोपकरणों के संयोग मिलाने वाले को लगती है। निवर्तनाधिकरणिको-खङ्ग, भाला आदि हिंसक शस्त्रों का मूल से निर्माण करना निर्वर्तना है। यह संसार की वृद्धिरूप होने से निर्वर्तनाधिकरणिकी कहलाती है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org