________________ बावीसइमं : किरियापयं बाईसवाँ क्रियापद प्राथमिक * यह प्रज्ञापनासूत्र का बाईसवाँ क्रियापद है। इसमें विविध दष्टिया से क्रियाओं के सम्बन्ध में गम्भीर चिन्तन प्रस्तुत किया गया है / * क्रिया सम्बन्धी विचार भारत के प्राचीन दार्शनिकों में होता आया है। क्रियाविचारकों में ऐसे भी लोग थे, जो क्रिया से पृथक् किसी कर्मरूप प्रावरण को मानते ही नहीं थे।' उनके ज्ञान को विभंगज्ञान कहा गया है। * भारतवर्ष में प्राचीनकाल से 'कर्म' अर्थात्-वासना या संस्कार को माना जाता था, जिसके कारण पुनर्जन्म होता है / प्रात्मा के जन्म-जन्मान्तर की अथवा संसारचक्र-परिवर्तन की कल्पना के साथ कर्म की विचारणा अनिवार्य थी। किन्तु प्राचीन उपनिषदों में यह विचारणा क्वचित् ही पाई जाती है, जब कि जैन और बौद्ध साहित्य में, विशेषतः जैन-आगमों में 'कर्म' की विचारणा विस्तृत रूप से पाई जाती है / * प्रस्तुत प्रज्ञापनासूत्र का क्रियाविचार क्रिया के सम्बन्ध में अनेक पहलुओं से हुई विचारणा का संग्रह है। यहाँ क्रियाविचार का क्रम इस प्रकार है* सर्वप्रथम क्रिया के कायिको आदि पांच भेद और प्रभेद, सिर्फ हिंसा-अहिंसा के विचार को लक्ष्य में रख कर बताए गए हैं।' * उसके पश्चात् क्रिया को कर्मबन्ध का कारण परिलक्षित करके जीवों की सक्रियता-अक्रियता के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया है। अक्रिय अर्थात् क्रियाओं से सर्वथा रहित को ही कर्मों से सर्वथा मुक्त सिद्ध और सर्वश्रेष्ठ माना गया है।' * उसके बाद अठारह पापस्थानों से होने वाली क्रियानों (प्रकारान्तर से कर्मो) तथा उनके विषयों का निरूपण किया गया है। इसीलिए प्राणातिपात आदि के अध्यवसाय से सात या पाठ कर्मों के बन्ध का उल्लेख किया गया है। * फिर जीव के ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध करते समय कितनी क्रियाएँ होती हैं ? इसका विचार प्रस्तुत किया गया है। यहाँ 18 पापस्थान की क्रियाओं को ध्यान में न लेकर सिर्फ पूर्वोक्त 5 1. देखिये स्थानांगसूत्र 542 2. पण्णवणासुतं (मूलपाठ टिप्पण) भा. 1, पृ. 350 3. वही, पृ. 350 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org