Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 462] [प्रज्ञापनासूत्र [3] देवाणं भंते ! तेयगसरीरे किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा! जहा वेउब्वियस्स (सु. 1526) जाव अणुत्तरोववाइय त्ति। [1544-3 प्र.] भगवन् ! देवों के तैजसशरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! जैसे (सू. 1526 में असुरकुमार से लेकर) यावत् अनुत्तरोगपातिक देवों (तक) के वैक्रियशरीर के (संस्थान का कथन किया गया है, उसी प्रकार इनके तैजसशरौर के संस्थान का कथन करना चाहिए। विवेचन-एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के तैजसशरीर का संस्थान- एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के तैजसशरीरों के संस्थान की चर्चा प्रस्तुत 5 सूत्रों (1540 से 1544 तक) में की गई है। तेजसशरीर का संस्थान औदारिक-वैक्रियशरीरानुसारी क्यों ?-तैजसशरीर जीव के प्रदेशों के अनुसार होता है। अतएव जिस भव में जिस जीव के प्रौदारिक अथवा वैक्रियशरीर के अनुसार आत्मप्रदेशों का जैसा प्राकार होता है, वैसा ही उन जीवों के तैजसशरीर का आकार होता है।' तेजसशरीर में प्रमाणद्वार 1545. जोवस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभ-बाहल्लेणं; आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागो, उक्कोसेणं लोगंतानो लोगंतो। [1545 प्र.] भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत (समुद्घात किये हुए) जीव के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी होती है ? [उ.] गौतम ! विष्कम्भ, अर्थात् -उदर प्रादि के विस्तार और बाहल्य, अर्थात्-छाती और पृष्ठ की मोटाई के अनुसार शरीरप्रमाणमात्र ही अवगाहना होती है। लम्बाई की अ की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है और उत्कृष्ट अवगाहना लोकान्त से लोकान्त तक होती है। 1546. एगिदियस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! एवं चेव, जाव पुढवि-आउ-तेउ-वाउ-वणप्फइकाइयस्स / [1546 प्र.] भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत एकेन्द्रिय के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम! इसी प्रकार (समुच्चय जीव के समान मारणान्तिक समुद्घात से समवहत एकेन्द्रिय के तैजसशरीर की अवगाहना भी) विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा से शरीरप्रमाण और 1. प्रज्ञापना. मलयवत्ति, पत्र 427 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org