Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [प्रजापनासूत्र 1538. एवं जहा ओरालियसरीरस्स भेदो भणियो (सु. 1477-81) तहा तेयगस्त वि जाव चरिदियाणं। [1538 प्र.) इस प्रकार जैसे औदारिक शरीर के भेद (सूत्र 1477 से 1481 तक में) कहे हैं, उसी प्रकार तैजसशरीर के भी (भेद) यावत् चतुरिन्द्रिय (तक) के (कहने चाहिए / ) 1539. [1] पंचेंदियतेयगसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-णेरइयतेयगसरीरे जाव देवतेयगसरीरे / [1536-1 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतैजसशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) चार प्रकार का कहा गया है। यथा—नैरयिकतैजसशरीर यावत् देवतैजसशरीर / [2] रइयाणं दुगतो भेदो भाणियब्बो जहा वेउब्वियसरीरे (सु. 1517-2) / [1536-2] जैसे नारकों के वैक्रियशरीर के (सू. 1517-2) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो भेद कहे गये हैं, उसी प्रकार यहाँ नारकों के तैजसशरीर के भी भेद (कहने चाहिए / ) [3] पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं मणूसाण य जहा ओरालियसरीरे भेदो भणितो (सु. 148287) तहा भाणियव्वो। [1536-3] जैसे (सू. 1482 से 1487 तक में) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों के प्रौदारिकशरीर के भेदों का कथन किया गया है, उसी प्रकार (यहाँ भी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों के तेजसशरीर के भेदों का) कथन करना चाहिए / [4] देवाणं जहा वेउब्वियसरीरे भेओ भणितो (सु. 1520) तहा भाणियव्वो जाव सव्वट्ठसिद्धदेवे ति। [1536-4, जैसे-(चारों प्रकार के) देवों के (सू. 1520 में) वैक्रियशरीर के भेद कहे गए हैं, वैसे ही (यहाँ भी) यावत् सर्वार्थसिद्ध देवों (तक) के (तैजसशरीर के भेदों) का कथन करना चाहिए। विवेचन-तेजसशरीर के भेद-प्रभेदों का निरूपण-प्रस्तुत 4 सूत्रों (1536 से 1536 तक) में समस्त संसारी जीवों के तेजसशरीर के भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है। फलितार्थ-तैजसशरीर एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के समस्त जीवों के अवश्यमेव होता है / इसलिए जीवों के जितने भद हैं, उतने ही तैजसशरीर के भेद हैं / यथा-एक-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियगत औदारिक-शरीर तक के जितने भेद कहे गए हैं, उतने ही भेद इनके तैजसशरीर के कहने चाहिए। पंचेन्द्रिय तेजसशरीर के नारक अादि चार भेद बताए हैं। उनमें से नारकों के वैक्रियशरीर के पर्याप्तक-अपर्याप्तक ये दो भेद कहे गए हैं, वैसे ही इनके तैजसशरीर के भी दो भेद कहने चाहिए। तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों के प्रौदारिकशरीर के जितने भेद कहे हैं, उतने ही उनके तैजसशरीर के भेद कहने चाहिए। चारों प्रकार के देवों के (सर्वार्थसिद्ध तक के) वैक्रियशरीर के जितने भेद कहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org