________________ इक्कीसवाँ अवगाहनासंस्थानपद] [471 प्रौदारिक, तेजस और कार्मण शरीरों के निर्माण, वृद्धि और ह्रास के लिए पुद्गलों का स्वयं चय, और उपचय किसी प्रकार का व्याघात (रुकावट या बाधा) न हो तो छहों दिशानों (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधोदिशा) से आकर होता है, और बुद्गल स्वयं अपचित होते हैं / आशय यह है कि सनाडी के अन्दर या बाहर स्थित औदारिक, तेजस एवं कार्मणशरीर के धारक जीव जब एक भी दिशा अलोक, से व्याहत (रुकी हुई) नहीं होती तब नियम से छहों दिशात्रों से पुद्गलों का आगमन या निर्गमन होता है। वैक्रिय शरीर और आहारक शरीर त्रसनाडी में ही सम्भव होते हैं, अन्यत्र नहीं / वहाँ किसी प्रकार का अलोक का व्याघात नहीं होता, इस कारण उनके लिए पुद्गलों का चय-उपचय नियम से छहों दिशानों से होता है।' किन्तु औदारिक, तैजस और कार्मणशरीर के पुद्गलों के प्रागमन में व्याघात हो, अर्थात् अलोक या जाने से प्रतिस्खलन या रुकावट हो तो कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से उनके पुद्गलों का चय, उपचय होता है। तात्पर्य यह है कि यदि एक दिशा में अलोक पा जाए तो पांच दिशाओं से, दो दिशाओं में अलोक आ जाए तो चार दिशाओं से और यदि तीन दिशाओं में अलोक पा जाए तो तीन दिशाओं से पुद्गलों का चय-उपचय होता है / उदाहरणार्थ-कोई औदारिक शरीरधारी सूक्ष्मजीव हो और वह लोक के सर्वोच्च (सर्वोर्व) प्रतर में प्राग्नेयकोणरूप लोकान्त में स्थित हो, जिसके ऊपर (लोकाकाश न हो, पूर्व तथा दक्षिण दिशा में भी लोक न हो, वह जीव अधोदिशा, पश्चिम और उत्तर दिशा, इन तीन दिशाओं से ही पुद्गलों का चय, उपचय करेगा क्योंकि शेष तीन दिशाएं अलोक से व्याप्त होती हैं / जब वही औदारिक शरीरी सूक्ष्म जीव पश्चिम दिशा में रहा हुआ हो, तब उसके लिए पूर्व दिशा अधिक हो जाती है, इस कारण चार दिशाओं से पुद्गलों का आगमन होगा / जब वह जीव अधोदिशा में द्वितीय आदि किसी प्रतर में रहा हा हो, और पश्चिम दिशा का अवलम्बन लेकर स्थित हो, तब वहाँ ऊर्ध्वदिशा भी अधिक लब्ध हो तो केवल दक्षिण दिशा ही अलोक से व्याहत (रुकी हुई) होती है, इस कारण पांचों दिशानों से वहां पुद्गलों का आगमन (चय) होता है / / तैजस कार्मण शरीर तो समस्त संसारी जीवों के होते हैं, इसलिए औदारिक शरीर की तरह उनका भी चय-उपचय समझना चाहिए। __जिस प्रकार चय का कथन किया है, उसी प्रकार उपचय और अपचय का कथन करना चाहिए / ५-शरीरसंयोगद्वार 1559. जस्सणं भंते! ओरालियसरीरं तस्स णं वेउब्वियसरीरं? जस्स वेउब्वियसरीरं तस्स पोरालियसरीरं? __ गोयमा! जस्स ओरालियसरीरं तस्स वेउब्वियसरीरं सिय अस्थि सिय णत्थि, जस्स वेउग्वियसरीरं तस्स ओरालियसरीरं सिय अस्थि सिय णस्थि / 1. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, पत्र 432 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टोका भा. 4, पृ. 809 2. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, पत्र 432 (ख) पण्णवणा सुत्त, (प्रस्तावनादि) भा-२, 5. 118 (ग) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा-४, 5.805-806 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org