Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] मत्स्य प्रादि के रूप में जन्म ले लेता है, तब उसकी ऊपर नीचे और तिरछे, पूर्वोक्त तेजसशरीरावगाहना होती है, ऐसा समझना चाहिए।' अच्युत देवों की ऊर्ध्व तेजसशरीरावगाहना--अच्युदेव ऊपर में अच्युत विमान तक ही रहता है / इसलिए उसकी तैजसशरीरावागाहना की प्ररूपणा करते समय ऊपर में अच्युतकल्प तक नहीं कहना चाहिए। यह देव अच्युतकल्प में रहता अवश्य है, किन्तु कदाचित् अपने विमान की ऊँचाई तक जाता है, और वहीं आयुष्यक्षय हो जाता है तो च्यव कर अच्युत विमान के पर्यन्त में उत्पन्न होता है / तब उसकी इतनी तेजसशरीरावगाहना होती है / कार्मरणशरीर में विधि-संस्थान-प्रमाणद्वार 1552. कम्मगसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्त ? ___ गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-एगिदियकम्मगसरोरे जाव पंचेंदिय० / एवं जहेव तेयगसरीरस्स भेदो संठाणं ओगाहणा य भणिया (सु. 1536-51) तहेव णिरक्सेसं भाणियन्वं जाव अणुत्तरोववाइय त्ति / __ [१५५२प्र-] "भगवन्! कार्मणशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ?" [उ.] "गौतम! (वह) पाँच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है-एकेन्द्रिय कार्मण शरीर (से लेकर) यावत् पंचेन्द्रिय कार्मण-शरीर / इस प्रकार जैसे तेजशरीर के भेद, संस्थान और अवगाहना का निरूपण (सू. 1536 से 1551 तक में) किया गया है, उसी प्रकार से सम्पूर्ण कथन (एकेन्द्रिय कार्मणशरीर से लेकर) यावत् अनुत्तरोपपातिक (-देवपंचेन्द्रिय कार्मणशरीर तक करना चाहिए।) विवेचन- कार्मणशरीर : तेजसशरीर का सहचर-जहाँ तैजसशरीर होगा, वहाँ कार्मणशरीर अवश्य होगा और जहाँ कार्मणशरीर होगा, वहाँ तेजसशरीर अवश्य होगा। दोनों का अविनाभावी सम्बन्ध है। तैजस-कार्मण दोनों की अवगाहना का विचार विशेषतः मारणान्तिक समुद्घात को लक्ष्य में लेकर किया गया है। कार्मणशरीर भी तैजसशरीर की तरह जीव प्रदेशों के अनुसार संस्थानवाला है / इसलिए जैसे तैजसशरीर के प्रकार संस्थान और अवगाहना के विषय में कहा गया वैसे कामण शरीर के प्रकार संस्थान एवं अवगाहना के विषय में कथन का निर्देश किया गया है। पुद्गल-चयन-द्वार 1553. ओरालियसरीरस्स णं भंते ! कतिदिसि पोग्गला चिज्जति ? गोयमा ! मिक्वाधाएणं छद्दिसि, वाघातं पड्डच्च सिय तिदिसि सिय चउदिसि सिय पंचदिसि / 1. प्रज्ञापना. मलयवत्ति, पत्र 430 2. वही, पत्र 430 3. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 130 (ख) पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. पृ. 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org