________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [467 लोगंताप्रो लोगंतो-लोकान्त से लोकान्त तक, अर्थात्-अधोलोक के चरमान्त से ऊर्वलोक के चरमान्त तक, अथवा ऊर्वलोक के चरमान्त से अधोलोक के चरमान्त तक / यह तैजसशरीरीय उत्कृष्ट अवगाहना सूक्ष्म या बादर एकेन्द्रिय के तैजसशरीर की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि सूक्ष्म और बादर एकेन्द्रिय ही यथायोग्य समस्त लोक में रहते हैं। अन्य जीव नहीं / इसलिए एकेन्द्रिय के सिवाय अन्य किसी जीव की इतनी अवगाहना नहीं हो सकती। प्रस्तुत में तैजसशरीरीय अवगाहना मृत्यु के समय जीव को मरकर जिस गति या योनि में जाना होता है, वहाँ तक की लक्ष्य में रख कर बताई गई है / अतएव जब कोई एकेन्द्रिय जीव (सूक्ष्म या बादर) मृत्यु के समय अधोलोक के अन्तिम छोर में स्थित हो और ऊर्वलोक के अन्तिम छोर में उत्पन्न होने वाला हो, अथवा वह मरणसमय में अवलोक के अन्तिम छोर में स्थित हो और अधोलोक के अन्तिम छोर में उत्पन्न होने वाला हो, और जब वह मारणान्तिक समुद्घात करता है, तब उसकी उत्कृष्ट अवगाहना लोकान्त से लोकान्त तक होती है। तिरियलोगाओ लोगतो-तिर्यक्लोक से लोकान्त तक अर्थात्-तिर्यग्लोक से अधोलोकान्त तक अथवा ऊर्ध्व-लोकान्त तक / प्राशय यह है कि जब तिर्यग्लोक में स्थित कोई द्वीन्द्रिय जीव ऊर्ध्व लोकान्त या अधोलोकान्त में एकेन्द्रिय के रूप में उत्पन्न होने वाला हो, और मारणान्तिक समुद्घात करे, उस समय तैजसशरीर की पूर्वोक्त अवगाहना होती है। उड्ढं जाव पंडगवणे पुक्खरिणोप्रो.-कार-उ. अवगाहना पण्डकवन में स्थित पुष्करिणी तक की होती है। इसका आशय यह है कि सातवीं नरकपृथ्वी से लेकर तिरछा स्वयम्भूरमण समुद्र-पर्यन्त और ऊपर पण्डकवन पुष्करिणी तक की अवगाहना तभी पाई जाती है जब सातवीं नरक का नारक स्वयम्भूरमण समुद्र के पर्यन्त-भाग में मत्स्यरूप में या पण्डकवन की पुष्करणियों में उत्पन्न होता है। तब उस सप्तमपृथ्वी के नारक की तैजसशरीरीय अवगाहना इतनी होती है। जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग-द्वीन्द्रिय के तेजसशरीर की अवगाहना पायाम की अपेक्षा से जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग को बताई गई है / इतनी अवगाहना द्वीन्द्रिय की तभी होती है, जब अंगुल के असंख्यातवें भाग वाला अपर्याप्त प्रौदारिक शरीरी द्वीन्द्रिय अपने निकटवर्ती प्रदेश में एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होता है / अथवा जिस शरीर में स्थित होकर मारणान्तिक समुद्घात करता है, उस शरीर से मारणान्तिक समुद्घातवश बाहर निकले हए तैजसशरीर के आयाम-विष्कम्भ एवं विस्तार की अपेक्षा से अवगाहना का विचार किया जाता है, उस शरीरसहित का नहीं, अन्यथा भवनपति आदि का जघन्यतः पायाम अंगुल का असंख्यातवें भाग का कहा गया है। उससे विरोध पाएगा क्योंकि भवनपति आदि का शरीर सात प्रादि हस्तप्रमाण है। अतः यही उचित तथ्य है कि महाकाय द्वोन्द्रिय जीव भी जब अपने निकटवर्ती प्रदेश में एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होता है, तब भी अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण उसकी तैजसशरीरावगाहना होगी, ऐसा समझना चाहिए। सातिरेगं जोयणसहस्सं--नारक के तैजसशरीर को अवगाहना पायाम की दृष्टि से जघन्य सातिरेक सहस्रयोजन की कही गई है। वह इस प्रकार समझनी चाहिए-वलयामुख आदि चार पातालकलश लाख योजन के अवगाह वाले हैं। उनकी ठोकरी एक हजार योजन मोटी है। उन पातालकलशों के नीचे का विभाग वायु से परिपूर्ण है, ऊपर का त्रिभाग जल से परिपूर्ण है तथा मध्य का त्रिभाग वायु तथा जल के अनुसरण और निःस्सरण का मार्ग है। जब कोई सीमन्तक आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org