________________ इक्कीसवां अवगाहनासंस्थानपद] [473 [उ.] गौतम ! जिस जीव के वैक्रिय शरीर होता है, उसके आहारक शरीर नहीं होता, तथा जिसके प्राहारक शरीर होता है, उसके वैक्रिय शरीर नहीं होता। [2] तेया-कम्माई जहा ओरालिएण समं (सु. 1561-62) तहेव आहारगसरीरेण वि समं तेया-कम्माइं चारेयग्वाणि। [1563-2] जैसे (सू. 1561-1562 में) औदारिक के साथ तैजस एवं कार्मण (शरीर के संयोग) का कथन किया गया है, उसी प्रकार आहारक शरीर के साथ भी तेजस-कार्मण शरीर (के संयोग) का कथन करना चाहिए। 1564. जस्स णं भंते ! तेयगसरीरं तस्स कम्मगसरीरं ? जस्स कम्मगसरीरं तस्स तेयग सरीरं? गोयमा ! जस्स तेयगसरीरं तस्स कम्मगसरीरं नियमा अस्थि, जस्स वि कम्मगसरीरं तस्स वि तेयगसरीरं णियमा अस्थि / [1564 प्र.] भगवन् ! जिसके तैजस शरीर होता है, क्या उसके कार्मण शरीर होता है ? (तथा) जिसके कार्मण शरीर होता है, क्या उसके तैजस शरीर भी होता है ? [उ.] गौतम ! जिसके तैजस शरीर होता है, उसके कार्मण शरीर अवश्य ही (नियम से) होता है, और जिसके कार्मण शरीर होता है, उसके तैजस शरीर अवश्य होता है / विवेचन–शरीरों के परस्पर संयोग की विचारणा-संयोगद्वार के प्रस्तुत 6 सूत्रों (1556 से 1564 तक) में एक जीव में ग्रौदारिक आदि पांच शरीरों में से कितने शरीर एक साथ संभव है ! इसका विचार किया गया है। फलितार्थ-- इन सब सूत्रों का फलितार्थ इस प्रकार है१. प्रौदारिक के साथ वैक्रिय, आहारक, तेजस, कार्मण सम्भव हैं। 2. वैक्रिय के साथ-औदारिक, तैजस, कार्मण शरीर सम्भव हैं / 3. श्राहारक के साथ-प्रौदारिक, तेजस, कार्मण शरीर सम्भव हैं / 4. तेजस के साथ-ौदारिक, वैक्रिय, आहारक, कार्मणशरीर सम्भव हैं।' 5. कार्मण के साथ-प्रौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस शरीर सम्भव हैं।' स्पष्टीकरण-(१) जिसके औदारिक शरीर होता है, उसके वैक्रिय शरीर विकल्प से होता है। क्योंकि वैक्रियलब्धि सम्पन्न कोई औदारिक शरीरी जीव यदि वैक्रिय शरीर बनाता है, तो उसके वैक्रिय शरीर होता है / जो जीव वैक्रियल ब्धिसम्पन्न नहीं है, अथवा वैक्रियलब्धियुक्त होकर भी वैक्रिय शरीर नहीं बनाता, उसके वैक्रिय शरीर नहीं होता। देव और नारक वैक्रिय शरीरधारी होते हैं, उनके औदारिक शरीर नहीं होता, किन्तु जो तिर्यञ्च या मनुष्य वैक्रिय शरीर वाले होते हैं, उनके औदारिक शरीर होता है / (2) जिसके औदारिक शरीर होता है, उसके आहारक शरीर होता भी है, नहीं भी होता। जो चतुर्दश पूर्वधारी आहारकलब्धिसम्पन्न मुनि हैं, उनके ग्राहारक शरीर 1. पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. 2, पृ. 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org