________________ 468] [प्रज्ञापनासूत्र नरकेन्द्रकों में विद्यमान पातालकलश का निकटवर्ती नारक अपनी आयु का क्षय होने से मर कर पातालकलश की एक हजार योजन मोटी दीवार का भेदन करके पातालकलश के भीतर दूसरे या तीसरे विभाग में मत्स्यरूप में उत्पन्न होता है, तब मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत उस नारक की जघन्य तैजसशरीरावगाहना एक हजार योजन से कुछ अधिक होती है / समयखेत्ताओ लोगंतो--मनुष्य के तैजसशरीर की अवगाहना उत्कृष्टतः समयक्षेत्र से लोकान्त तक की कही है, अर्थात्-- मनुष्य की तैजसशरीरावगाहना मनुष्य क्षेत्र से अधोलोक के चरमान्त तक या ऊर्ध्वलोक के चरमान्त तक समझनी चाहिए, क्योंकि मनुष्य का भी एकेन्द्रिय में उत्पन्न होना संभव है / तात्पर्य यह है कि मनुष्य का जन्म या संहरण समयक्षेत्र से अन्यत्र सम्भव नहीं है। अतः इससे अधिक उसकी तैजसशरीरावगाहना नहीं हो सकती। इसे समयक्षेत्र इसलिए कहते हैं कि यह ढाईद्वीपप्रमाणक्षेत्र ही ऐसा है, जहाँ सूर्य आदि के संचार के कारण समय (काल) का व्यक्त व्यवहार होने से समयप्रधान क्षेत्र है।' वानव्यन्तर से सौधर्म ईशान तक के देवों की तैजसशरीरावगाहना लम्बाई की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट नीचे तृतीय नरकपृथ्वी के अधस्तनचरमान्त तक की, तिरछी, स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य वेदिकान्त तक की और ऊपर ईषत्प्राग्भार पृथ्वी तक की कही गई है / इसका तात्पर्य यह है कि असुरकुमार आदि सभी भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म-ईशानदेव एकेन्द्रियों में भी उत्पन्न होते हैं। जब वे च्यवन के समय अपने केयूर आदि आभूषणों में, कुण्डल आदि में या पद्मराग ग्रादि मणियों में लुब्ध-मूच्छित होकर उसी के अध्यवसाय में मग्न होकर अपने शरीर के उन्हीं निकटवर्ती आभूषणों में पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होते हैं, तब उन देवों के तैजसशरीर की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है। जब कोई भवनपति आदि देव प्रयोजनवश तृतीय नरकपृथ्वी के अधस्तन (नीचले) चरमान्त (अन्तिम छोर) प्रदेश में जाता है और आयु का क्षय होने से वहीं मर जाता है, तब तिरछे स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य वेदिकान्त में अथवा ईषत्प्राम्भारा पृथ्वी के पर्यन्त भाग में पृथ्वीकायिक रूप में उत्पन्न होता है / उस समय उसको तेजसशरीरावगाहना नीचे -तृतीय नरकपृथ्वी के चरमान्त तक, मध्य में स्वयम्भूरमण के बाह्य वेदिकान्त तक और ऊपर ईषत्प्रारभारा पृथ्वी के पर्यन्त भाग तक की होती है। सनत्कुमारादि देवों की तैजसशरीरावगाहना-सनत्कुमार ग्रादि देव अपने भवस्वभाववश एकेन्द्रियों में या विकलेन्द्रियों में नहीं उत्पन्न होते / वे पंचेन्द्रितिर्यञ्चों अथवा मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं / अतएव मन्दर पर्वत की पुष्करिणी आदि में जलावगाहन करते समय आयु का क्षय होने पर उसी स्थान में निकटवर्ती प्रदेश में मत्स्यरूप में उत्पन्न हो जाते हैं, तब उनके तैजस शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है / यदि कोई सनत्कुमारादि देव दूसरे देव के निश्राय से अच्युतकल्प में चला जाए, और वहीं उसकी अपनी प्रायु का क्षय हो जाए तो वह काल करके तिरछे--स्वयम्भूरमण समुद्र के पर्यन्तभाग में अथवा नीचे पातालकलश के दूसरे त्रिभाग में, 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 427 से 429 तक 2. वही, पत्र 429 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org