________________ इक्की सवाँ अवगाहनासंस्थानपद] [451 13. समस्त भवनपति देवों ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. 7 की ज. अंगुल के संख्यातवें भाग के वै. शरीर उ. 1 लाख योजन 14. समस्त वानव्यन्तरों के ज. अंगुल के संख्यातवें भाग वै. शरीर उ. 1 लाख योजन 15. समस्त ज्योतिष्कों के वै. शरीर 16. सौधर्म से अच्युतकल्प ज. अंगुल के असंख्यातवे भाग, उ. 7 हाथ की , , , , , , तक के देवों के वै. श. की सनत्कुमार देवों के वै. ज. अंगृल के असंख्यातवें भाग उ. 6 हाथ की , , , , , , श. की माहेन्द्र कल्प के देवों के. ज अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. 6 हाथ की , , वै. श. की ब्रह्मलोक लान्तक दे. ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. 5 हाथ की। के वै. श. महाशुक्र सहस्रार दे. के ज. अंगल के असंख्यातवें भाग, उ. 4 हाथ की , , , वै. श. प्रानत- प्राणत- पारण ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. 3 हाथ की , , , , अच्यूत कल्प के दे. के वै. शरीर की 17. नवग्रे वेयकों के वै. श. ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. 2 हाथ की की 18. पंच अनुत्तरोपपातिक ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. 1 हाथ की दे. के वै. शरीर की नारकों को अवगाहना के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण-रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकों की-जो भवधारणीय शरीरावगाहना जघन्य अगुल के असंख्यातवें भाग की कही है, वह उत्पत्ति के प्रथम समय में होती है,तथा जो उत्कृष्ट अवगाहना 7 धनुष, 3 हाथ 6 अंगुल की बताई है, वह पर्याप्त अवस्था की अपेक्षा से तेरहवें प्रस्तट (पाथड़े) में जाननी चाहिए। इससे पूर्व के प्रस्तटों में क्रमशः थोड़ी-थोड़ी अवगाहना उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है / वह इस प्रकार--रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम प्रस्तट में उत्कृष्ट अवगाहना तीन हाथ की, दूसरे प्रस्तट में 1 धनुष 1 हाथ, 8 // अंगुल की, तीसरे प्रस्तट में 1 धनुष 3 हाथ 17 अंगुल की, चौथे प्रस्तट में 2 धनुष 2 हाथ, 1 // अंगुल की, पांचवें प्रस्तट में 3 धनुष 10 अंगुल को, छठे प्रस्तट में 3 धनुष, 2 हाथ, 1 / / अंगुल की, सातवें प्रस्तट में 4 धनुष, 1 हाथ 3 अगुल की, आठवें प्रस्तट में 4 धनुष, 3 हाथ 1 / / अंगुल की, नौवें प्रस्तट में 5 धनुष 1 हाथ, 20 अगुल की, दसवें प्रस्तट में 6 धनुष, 4 / / अंगुल की, ग्यारहवें प्रस्तट में 6 धनुष, 2 हाथ, 13 अंगुल की, बारहवें प्रस्तट में 7 धनुष, 21 // अंगुल की, और १३वें प्रस्तट में पूर्वोक्त अवगाहना होती है। 1. पण्णवण्णासेत (मूलपाठ-टिप्पणी) भा. 1 पृ. 247-341 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org